Friday, August 8, 2008

तड़पती खबरें

एक्सक्लूसिव और ब्रेकिंग के बीच तड़पती खबरें

संजय द्विवेदी -
खबरिया चैनलों की होड़ और गलाकाट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं। खबरें अब सिर्फ सूचनाएं नहीं देती, वे एक्सक्लूसिव में बदल रही हैं। हर खबर का अब ब्रेकिंग न्यूज में बदल जाना सिर्फ खबर की कलरिंग भर का मामला नहीं है। दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है । खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं। वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी। खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती है। और खड़ी हो जाती हैं किनारे। खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नज़र से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नज़रिया बनाए। अब नज़रिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है। आपको किस ख़बर को किस नज़रिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं।
ख़बर क्राइम की है तो कुछ खतरनाक शक्ल के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, ख़बर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे ! कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ ख़बर तक नहीं है। ख़बर तो कहीं दूर बहुत दूर, खडी़ है...ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप ख़बर को इस नज़र देखिए। वह यह भी बताता है कि इस ख़बर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं ! वह यह भी जोड़ता है कि यह ख़बर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं।
दर्शक को कमतर और ख़बर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहाँ ख़बर अपने असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्लाबोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहाँ से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।
हर ख़बर कैसे ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है। वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएं हैं और खलनायक भी। साथ मे है कोई जादुई निदेशक। ख़बर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चेनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसिर्गिकी विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है। बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं।
ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं। शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए। समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियाँ, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी विद्रूपताएं हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले। पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियाँ, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव । क्या खबरें इतनी ही हैं ?
बॉडी और प्लेजर की पत्रकारिता हमारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएं और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है। कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है।
एनडीटीवी ने 'मेघा रे मेघा' नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं वे अदभुत हैं। उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोड़ना तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ब्रेकिंग का दावा था न एक्सक्लूसिव का लेकिन ख़बर देखी गई और महसूस भी की गई।
कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी और मीका का चुंबन प्रसंग, करीना या शाहीद कपूर की प्रेम कहानियों से आगे जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा।
अभिषेक बच्चन की शादी को लेकर चिंतित मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नज़र डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा जो उनके सारे कष्ट हर लेगा ! लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आँखों से वे किसी ख़बरनवीस की आँखें तकती है कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज़ दे।
कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुँचने की कोशिश भी करते रहे हैं। यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, माँग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई ख़बरों ने हमसे मुँह मोड़ लिया है। हम तलाश में हैं ऐसी स्टोरी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/चैनल की ही चर्चा हो। इस बदले हुए बुनियादी उसूल ने खबरों को देखने का हमारा नज़रिया बदल-सा दिया है। हम खबरें क्रिएट करने की होड़ में हैं क्योंकि क्रिएट की गई ख़बर एक्सक्लूसिव तो होंगी ही ।
एक्सक्लूसिव की यह तलाश कहाँ जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता। बावजूद इसके हम पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों पर कायम रहते हुए एक संतुलन बना पाएं तो यह बात हमारी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को बनाए रखने में सहायक होगी।
(लेखक संजय द्विवेदी रायपुर में जी चौबीस घंटे न्यूज चैनल के इनपुट एडीटर हैं)

Tuesday, August 5, 2008

क्या हो गया मीडिया को ?

क्या हो गया मीडिया को...
कुलवंत
पिछले बीस दिनों से राजस्थान गुर्जर अंदोलन की आग में झुलस रहा है, जिसका असर रेलवे विभाग के कारोबार एवं देश की आर्थिक व्यवस्था पर भी पड़ रहा है. वहीं दूसरी तरफ उत्तर भारत की तरफ जाने वाले लोगों को दिन रात यह चिंता रहती है कि कहीं उनकी गाड़ी राजस्थान में जाकर तो रुक न जाएगी. लेकिन हैरानी की बात है कि हमारे मीडिया की नजर बस एक लड़की की हत्या पर टिकी हुई है, वो आरुषी हत्याकांड. बेशक इस बात को आज एक महीना गुजर चुका है और इस मामले की जांच सीबीआई के हाथों में पहुंच चुकी है. फिर भी न्यूज चैनलों पर इस हत्याकांड को बहुत ज्यादा दिखाया जा रहा है, आपके जेहन में सवाल तो उठा होगा आखिर क्यों, मीडिया इस मामले को इतना उठा रहा है. क्या भारत में ये कोई पहली हत्या है, इस पहले कोई लड़की इस दुनिया को अलविदा कहकर नहीं गई?हर रोज देशभर में सैंकड़ों हत्याएं होती हैं, जिनमें ज्यादातर हत्यारे अपने ही होते है, मगर वो खबर तो कभी टैलीविजन पर नहीं आई, कल की बात को ही ले लो, पटियाला में एक व्यक्ति ने अपनी बहन एवं अपने जीजा को मौत के घाट उतार दिया, इसके अलावा पुलिस के हाथों बे-अबरू हुई रोहतक की सरिता ने आत्महत्या कर ली थी, मगर वो मामला मीडिया में क्यों नहीं आया. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण पैसा. आज मीडिया लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए नहीं बल्कि पैसा कमाने पर अधिक ध्यान देता है. अगर 'आज तक' ने एक खबर को बढा चढाकर पेश कर दिया तो लाजमी है कि दूसरे चैनलों पर वो खबर और बढ़ाचढ़ाकर पेश की जाएगी, क्योंकि प्रतिस्पर्धा के इस युग में, हर कोई खुद को आगे दिखना चाहता है, चाहे वो खबर काम की हो चाहे न, निठारी कांड, किडनी कांड कई कांड हिंदुस्तान की धरती पर घटे एवं उनके आरोपियों का क्या हुआ, यह मामले कहां तक पहुंच गए, किसी मीडिया ने नहीं उठाया. सबसे पहली बात जब तक कोर्ट किसी को दोषी नहीं ठहरा देती तब तक मीडिया को किसको कातिल हत्यारा कहने का कोई हक नहीं, मगर आज का मीडिया तो आदमी की इतनी बदनामी कर देता है, बेशक वो आदमी कोर्ट से बरी भी हो जाए तो लोग उसको दोषी ही मानेंगे. इतना ही नहीं, इस हत्याकांड के एक दिन बाद तो मीडिया ने इस हत्या के पीछे अवैध शारीरिक संबंधों का जिक्र किया गया था. जिसके चलते एक चैनल पर मान हानि का दावा भी ठोक दिया गया है.जरूरत है आज मीडिया पर लगाम कसने की, इतनी आजादी भी अच्छी नहीं, आरुषी मामले में ही देख लो जो कल तक मीडिया आरुषी के पिता के बारे में उलटा सीधा बोल रहा था, आज उसने कृष्णा को पकड़ लिया, जबकि अभी तक सीबीआई के हाथ कोई खास सबूत नहीं लगे जो कृष्णा को हत्यारा साबित कर दें, फिर मीडिया इस मामले में हद से ज्यादा कयास लगा रहा है.मीडिया की जिम्मेदारी है, हर खबर समाज तक पहुंचाए, न कि टीआरपी बढ़ाने के लिए एक ख़बर पर जोर दिया जाए. इस ख़बर पर इतना जोर दे दिया गया कि एकता कपूर जैसी सास बहू के सीरियल में इस हत्याकांड को शामिल करने तक की बात करने लगी थी, मीडिया को अपनी टीआरपी बढ़ाने के साथ साथ, आरुषी के रिश्तेदारों, दोस्तों एवं माता पिता के दिल पर क्या बीत रही है, इस बात का ख्याल करना चाहिए.

Saturday, May 24, 2008

Thursday, May 22, 2008