Friday, September 19, 2008

भारत का पहला शहीद पत्रकार

मौलवी मोहम्मद बाकर
अरविंद कुमार सिंह

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तमाम राजाओं के नाम प्रमुखता से आते हैं, पर पत्रकारों की बलिदानी भूमिका पर खास रोशनी नहीं पड़ती है। पर जब सभी आहुति दे रहे थे तो भला उस समय के पत्रकार पीछे कैसे रहते? यह सही है कि1857 की बुनियाद सिपाहियों ने डाली थी शुरू से अंत तक वही इसकी रीढ़ बने रहे, लेकिन इसमें भाग लेनेवालों में मजदूर किसान, जागीरदार, पुलिस ,सरकारी मुलाजिम, पेंशनर, पूर्व सैनिक तथा लेखक और पत्रकार भी थे। इस क्रांति में पत्रकारिता क्षेत्र के नायक बने थे मौलवी मोहम्मद बाकर ,जिनके नेतृत्व में प्रकाशित होनेवाले देहली उर्दू अखबार ने 1857 में सैकड़ों तोपों जितनी मार की । उनकी आग उगलती लेखनी से अंग्रेज बहुत कुपित थे। पर वह किसी दबाव में नहीं आए और लगातार लेखनी से जंग जारी रखी। दिल्ली पर कब्जा कर लेने के बाद अंग्रेजों ने मौलवी बाकर पर कई तरह के झूठे आरोप लगाए और उनको फांसी पर लटका दिया गया। देहली उर्दू अखबार के लेखों ,रिपोर्टों, अपीलों, काव्य रचनाओं तथा फतवों से अंग्रेज अधिकारी खासे नाराज थे। इसी नाते अखबार और उसके संपादक पर बगावत को भड़काने का आरोप लगाया गया। महान सेनानी मौलवी बाकर को दिल्ली में 14 सितंबर 1857 को गिरफ्तार किया गया और मुकदमे का नाटक किए बिना ही 16 सितंबर 1857 को कुख्यात अधिकारी मेजर हडसन ने फांसी पर लटका दिया। लेकिन यह दुख: कि बात है कि पत्रकारिता क्षेत्र के इस पहले और महान बलिदानी की भूमिका से खुद मीडिया जगत के ही अधिकतर लोग अपरिचित हैं। १६ सितंबर २००७ को पहली बार इस आलेख के लेखक के संयोजन में प्रेस क्लब आफ इंडिया ने शहीद पत्रकार की याद में एक समारोह किया था। इसके बाद जानेमाने उर्दू पत्रकार और उर्दू संपादक सम्मेलन के महासचिव मासूम मुरादाबादी ने एक पुस्तक भी लिखी, जिसका हाल में उपराष्ट्रपति ने लोकार्पण किया । इस पुस्तक में विलियम डेंपरिल के तमाम दावों की धज्जी उड़ाई गयी है। उन्होने तमाम प्रमाणों से यह भी स्थापित किया है कि मौलवी बाकर की फांसी देने की तिथि १६ सितंबर 1857 थी,जबकि कई दस्तावेजों में यह 17 सितंबर भी अंकित है।
देहली उर्दू अखबार जैसी बागी पत्रकारिता को ही नियंत्रित करने के लिए 13 जून 1857 को लार्ड केनिंग एक गलाघोंटू कानून लेकर आए। राजद्रोह पर बहुत कड़ी सजा के साथ पूर्व अनुमति के बिना प्रेस खोलना व उसे चलाना गैरकानूनी बना दिया गया। पर उस समय पयामे आजादी , देहली उर्दू अखबार ,समाचार सुधावर्षण और हिंदू पैट्रियाट समेत दर्जनो अखबारों ने सच लिखना जारी रखा था। उस समय एक से दूसरे जगहों पर आवाजाही या संदेश भेजना बहुत कठिन था। ऐसे माहौल में भी महान क्रांति का दायरा बहुत लंबे चौड़े इलाके तक रहा। इससे यह समझा जा सकता है कि चिंगारी को फैलाने में कितने लोगों का श्रम और बलिदान निहित रहा होगा। जाहिर है कि उस समय के कई अखबारों ने भी इसे गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। अखबारों ने बागियों के भीतर नया जोश और जज्बा पैदा करने का काम किया। शायद इसी नाते सभी तथ्यों को परख कर लार्ड केनिंग ने 13 जून 1857 को काफी तीखी टिप्पणी की थी --
.......पिछले कुछ हफ्तों में देसी अखबारों ने समाचार प्रकाशित करने की आड़ में भारतीय नागरिको के ·े दिलों में दिलेराना हद तक बगावत की भावना पैदा कर दी है।
बगावत के विस्तार में निसंदेह अखबारों का भी योगदान था। देहली उर्दू अखबार भारत का ऐसा अकेला राजनीतिक अखबार था ,जिसने अन्य भाषाओं के अखबारों को भी राह दिखायी । भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में इस अखबार के 8 मार्च 1857 से 13 सितंबर 1857 तक के अधिकतर अंक उपलव्ध हैं। दिल्ली की स्वतंत्रता के पहले के अंक भी काफी महत्व के हैं।
मौलवी मोहम्मद बाकर केवल देहली उर्दू अखबार के संपादक और स्वामी ही नहीं ,बल्कि जाने- माने शिया विद्वान भी थे। इस अखबार के प्रिंट लाइन में प्रकाशक के रूप में सैयद अव्दुल्ला का नाम छपता था। दरबार में भी मौलवी बाकर की गहरी पैठ और सम्मान था ,जबकि दिल्ली शहर में उनकी विशेष हैसियत थी। मशहूर शायर जौक समेत कई जानेमाने लोग उनके मित्र थे। शुरूआत में अपने पिता से ही मौलवी बाकर को शिक्षा मिली। बाद में दिल्ली के जाने-माने विद्वान मियां अब्दुल रज्जाक के सानिध्य में उन्होने शिक्षा पायी और 1825 में उनका देहली कालेज में दाखिला कराया गया,जहां अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वह शिक्षक बने ।
अपनी शिक्षा की बदौलत वह महत्वपूर्ण सरकारी ओहदों पर 16 साल तक रहे ,पर पिता के कहने पर उन्होने नौकरी छोड़ दी । उन्होने छापाखाना लगाया और देहली उर्दू अखबार शुरू किया हालांकि अंग्रेजी राज में अखबार निका लना बहुत टेढ़ा काम था । पर मौलवी ने उर्दू अखबार प्रेस खड़ा किया । जिस मकान से यह समाचार पत्र प्रकाशित किया गया वह दरगाहे पंजा शरीफ (कश्मीरी गेट) से बिल्कुल मिला था और आज भी मौजूद है। इस अखबार ने देश के विभिन्न भागों में अपने प्रतिनिधि भी नियुक्त किए थे।
मौलवी बाकर की कलम आग उगलती थी। उन्होने समाज के सभी वर्गो को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया । क्रांति के सबसे महत्वपूर्ण केद्र दिल्ली में यह अखबार क्रांति को जनक्रांति बनाने में काफी सहायक हुआ। देहली उर्दू अखबार बाकी अखबारों से इस नाते भी विशिष्ट है क्योंकि यही क्रांति के बड़े नायको के काफी करीब था और प्रमुख घटनाओं को इसके संपादक तथा संवाददाताओं ने बहुत नजदीक से देखा। वैसे तो जामे जहांनुमा को उर्दू का पहला अखबार माना जाता है,पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका से बाहर था।
देहली उर्दू अखबार ने आजादी की लडाई में अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया और ऐतिहासिक बलिदान दिया। 1857 के पहले इस अखबार में दिल्ली के सभी क्षेत्रों को कवर किया जाता था। पर आजादी की जंग के विस्तार के साथ ही इस अखबार का तेवर भी तीखा होता गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी के लूट राज के खिलाफ खुल कर इसने लिखा और 1857 से संबंधित खबरों को बहुत प्रमुखता से छापा। अखबार का प्रयास था िक महत्वपूर्ण घटनाओं के समय उसके संवाददाता मौके पर मौजूद रहें। इतना ही नहीं जनभावनाओं को और विस्तार देने तथा जोश भरने के लिए इस अखबार ने वीर रस का साहित्य भी छापा , धर्मगुरूओं के फतवों व बागी नेताओं के घोषणापत्र को प्रमुखता से स्थान मिला। ऐसी बहुत सी खबरें छापी गयीं जिससे बागियों का हौंसला और बुलंद हो। मौलवी बाकर के पुत्र मोहम्मद हुसैन आजाद काफी अच्छे शायर थे । क्रांति के दौरान उनकी रचनाएं अखबार के पहले पेज पर छपती थी। 1857 को लेकर उनकी यह नज्म 25 मई 1857 के अंक में , मेरठ में विद्रोही सेना की विजय के समाचार के साथ छपी थी---
सब जौहरे अक्ल उनके रहे ताक पर रक्खे
सब नाखूने तदबीरो खुर्द हो गए बेकार
काम आए न इल्मो हुनरो हिकमतो फितरत
पूरब के तिलंगो ने लिया सबको वहीं मार।
जून 1857 के बाद अखबार की भाषा-शैली में काफी बदलाव आया। वह जहां एक ओर सिपाहियों की खुल कर तारीफ कर रहा था वहीं, कमियों पर भी खुल कर कलम चला रहा था। सिपाहियों को वह सिपाह-ए-दिलेर ,तिलंगा-ए-नर-शेर तथा सिपाह ए हिंदुस्तान का संबोधन दे रहा था। हिंदू सिपाहियों को वह अर्जुन या भीम बनने की नसीहत दे रहा था तो दूसरी ओर मुसलमान सिपाहियों को रूस्तम ,चंगेज और हलाकू की तरह अंग्रेजों को समाप्त करने की बात कर रहा था। सिपाहियों के प्रति उसकी विशेष सहानुभूति तो दिखती ही है,तमाम खबरों को पढ़कर यह भी नजर आता है, उसके पत्रकारों की सिपाहियों के बीच गहरी पैठ थी।
देहली उर्दू अखबार का विचार पक्ष भी काफी मजबूत था। अखबार हिन्दू -मुसलिम एकता का प्रबल पैरोकार था। उसने कई मौको पर अंग्रेजों की सांप्रदायिक तनाव फैलाने की चालों को बेनकाब कर हिंदुओं और मुसलमानो दोनो को खबरदार किया । कई दृष्टियों से यह महान अखबार और उसके संपादक मौलवी बाकर सदियों तक याद किया जाते रहेगें। यही नहीं भारतीय पत्रकारिता के इस पहले महान बलिदानी से युवा पत्रकार हमेशा प्रेरणा पाते रहेंगे। सरकार को चाहिए , इस महान सेनानी की याद में कमसे कम एक स्मारक् बनाया जाये और डाक टिकट जारी किया जाये। इसी के साथ भारत के पत्रकार संगठनो को भी चाहिए, देश के इस पहले शहीद सेनानी की याद में 16 सितंबर को देश भर में शहादत दिवस भी मनाया जाए ।

2 comments:

मनोज द्विवेदी said...

Itani badhiya jankari ke liye sukriya sir..bhasa ke dhani kalamkar ke kalam se nikali ek-ek pankti oj paida karti hai.apke is behtar prayas se hum jaise trainee patrakar ko bahut kuchh sikhane ko mil raha hai. kripaya gyan dan jari rakkhe.......APAKA PRASANSAK
MANOJ DWIVEDI....

Unknown said...

Arvind singh ji hum jaise patrkaron ke preranasrot hai. ummeed hai ki aane wale samay me me ve hamein aisi jankariyon se sammridh karte rahenge.

Sanjay Rai(Aaj wale)
ITN telimedia