अरविंद कुमार सिंह
दिल्ली में पिछले २५ साल से सड़के नापते-नापते मीडिया के साथ बहुत सी दुनिया देखने का मौका मिला है। मीडिया से भी इस बीच में जाने कितने लोग असमय में ही काल का ग्रास बने। पर मुझे कंचना के अलावा जिन मौतों ने बहुत झकझोर दिया, उनमें श्री दिलीप कुमार और अनंत डबराल की मौत शामिल है, जिनके बहुत करीब होने के बावजूद उनके आखिरी मौके पर मैं नहीं रहा। इसी नाते कंचना की मौत के बाद मेरे मन मे एक ही सवाल लगातार तैर रहा था कि उनको जीवित कैसे रखा जाये। कंचना की याद में प्रेस क्लब आफ इंडिया में आयोजित शोक सभा में इसी नाते मेरा जोर इसी खास बिन्दु पर था।
कंचना की दिल्ली यात्रा ,यहां के संघर्षों और जाने माने पत्रकार भाई अवधेश कुमार की जीवन संगिनी बनने जैसे पड़ाव का गवाह रहने के नाते मैंने बहुत सी चीजें बड़े नजदीक से देखी है। मीडिया में मुझे ऐसा कोई नही मिला जिसने कभी कंचना की कोई आलोचना की हो। इसके साथ सबसे बडी़ बात यह देखी कि जिसने भी कंचना के बारे में बात की बहुत सम्मान से बात की । यह बात कहते मुझे संकोच नहीं कि हमारे पेशे में खासकर हिन्दी पत्रकारिता में बहुत से लोग आदिम युग में जी रहे हैं और बहुत से लोगों को अपने साथी महिला पत्रकारों पर टीका -टिप्पणी करने की आदत सी हो गयी है। मीडिया से जुड़ी कुछ जगहे ऐसी हैं जहां से गुजरनेवाली महिला पत्रकारों पर फब्तिया आम बात हैं। पर मैने कभी भी किसी के मुंह से कंचना के बारे में कभी कोई अनर्गल प्रलाप या टिप्पणी नहीं सुनी। उनके प्रति हमेशा एक आदर का भाव ही सबने दर्शाया।
पत्रकारिता के प्रति कंचना का सच्चा समर्पण और सामाजिक सरोकारों के प्रति उनकी निष्ठा तथा मुसीबतजदा लोगो के साथ हमेशा खड़े रहने की आदत नें कंचना को सबका सम्मानपात्र बना दिया था। यहां तक कि उन लोगों का भी,निंदा और आलोचना जिनकी दिनचर्या बन गयी है।
मैं इस बात को बहुत करीब से जानता हूं कि कंचना ने इस शहर में कितनी पीड़ा झेली है और कितना संघर्ष किया है। कर्मठ महिला पत्रकारों के हिस्से वैसे भी कुछ ज्यादा ही संघर्ष आता है। कंचना के हमेशा मुस्कराते चेहरे पर भले ही यह पीड़ा कभी न झलकी हो पर उनसे करीब से जुड़े लोगों ने तो उनको देखा ही है।
मेरी कंचना से मुलाकात किस साल हुई यह ठीक से याद नहीं। शायद 1991-1992 की गरमियों की बात होगी,कंचना अचानक दोपहरी में मुझे आईएनएस बिल्डिंग में किसी के साथ अमर उजाला के कार्यालय में मिली थीं। तब कार्यालय मे मैं ही था और अपना परिचय देने के बाद अखबार के कुछ संस्मरण कंचना ने देखे थे। हमने एक साथ चाय पी और बातचीत की । बात लिखने पढऩे पर केंद्रित रही। तब मैने कंचना को कहा था कि अभी तो तुम्हारी बहुत कम उम्र है लिहाजा लिखने के बजाय पहले पढऩे और चीजों को समझने पर ही जोर दो। पर एक - दो और मुलाकातों में मैने देख लिया कि कंचना की समझ के बारे में मैने जो सोचा था वह गलत था। कंचना पहले से ही बहुत सुलझी,दृष्टिवान और पत्रकारिता के प्रति समर्पित तो थी ही एक तय दिशा भी उसके सामने थी।
इसके बाद कंचना से अक्सर कहीं न कहीं भेंट हो ही जाती थी। आईएनएस बिल्डिंग में उनका नियमित आना जाना था। कई बड़े अखबारों में कंचना लिख रही थीं। आईएनएस में मुलाकातें लंबी नहीं तो कमसे कम चलते फिरते ही हो जाती थीं और उसी में कंचना का सारा हाल चाल मिल जाता था। हां यह जरूर है 2001 में आईएनएस बिल्डिंग छूटने और जनसत्ता एक्सप्रेस में आने के बाद कंचना से मिलना नाममात्र का ही रहा,पर उनका लिखा पढऩे को मिल जाता था और हालचाल भी।
कंचना को मैने हमेशा किसी न किसी ठोस मुद्दे पर या किसी खास लक्ष्य में तल्लीन पाया। दिशाहीनता कभी भी कंचना के आसपास मुझे कभी नही दिखी। कनाचना की निष्ठा,सक्रियता और कर्मठता ने उसे ऐसी ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया जहां पहुंचने में लोगों को काफी समय लगता है।
कंचना और अवधेश कुमार जी दोनो के साथ मेरी आत्मीयता शुरू से ही रही। अवधेशजी के साथ जुडऩे के बाद इस जोड़ी को एक नयी दिशा मिली और इनकी प्रतिभाओं में निखार आया । इनकी बेतरतीब जिंदगी को भी एक आयाम मिला। कंचना की जुदाई से अवधेश जैसे सरल,सहज साथी को कितनी पीडा हुई है,यह मैं महसूस रहा हूं,पर इससे भी बड़ी बात यह है कि कंचना की कमी को पत्रकारिता के साथ समाज भी महसूस कर रहा है।
पत्रकारिता के पेशे के प्रति समर्पण और निष्ठा के साथ कंचना ने सामाजिक सरोकारों को बराबर की अहमियत दी। कंचना का परिचय देश के चोटी के नेताओं से लेकर गरीब से गरीब आदमी से था। लेकिन कंचना में कभी दंभ नही रहा ना तिरछी राह से जगह बनाने की जल्दबाजी। कंचना हमेशा हमें याद आती रहेगी और उनकी कमी पत्रकारिता को अखरेगी । यह खुशी की बात है कि कंचना न्यास बना और सालाना समारोह कर अवधेशजी और राम बहादुरराय जी ने कंचना जैसी आदर्श पत्रकार को जीवित रखा है। कंचना के याद में पुरस्कार भी दिया जा रहा है। इससे युवा पत्रकारों को प्रेरणा मिल रही है ।
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2 comments:
भाई जय-जयराम. मुकुंद, चंडीगढ़
विनम्र श्रद्धांजलि
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