पुस्तक : क्रान्ति यज्ञ (1857-1947 की गाथा)
-समीक्षक : गोवर्धन यादव
राष्ट्रीय अस्मिता के रेखांकन का सार्थक प्रयास है ‘‘क्रान्ति-यज्ञ‘‘
स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शासन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा और जब इस क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए सन् 1857 से सन् 1947 तक दीर्घावधि क्रान्तियज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। इसी ‘क्रान्ति यज्ञ‘ की गौरवगाथा जनमानस में साहित्य और साहित्येतिहास में अंकित है। भारतीय डाक सेवा के अधिकारी एवं युवा साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव व युवा लेखिका आकांक्षा यादव द्वारा सुसम्पादित पुस्तक ‘‘क्रान्ति यज्ञ ः 1857-1947 की गाथा‘‘ में भारतीय स्वाधीनता संग्राम की अमर बलिदानी गौरव गाथाओं एवं इनके विभिन्न पहलुओं को विविध जीवन क्षेत्रों से संकलित करके ऐतिहासिक शोधग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया है। इस प्रस्तुति में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के ज्ञात व अज्ञात अमर शहीदों और सेनानियों को विस्तृत राष्ट्रीय अस्मिता के भावपूर्ण परिवेश में अंकित करने का सार्थक प्रयास किया गया है, जो अपने राष्ट्रीय जीवन के आदर्शमय संदेशों से परिपूर्ण है। अपनी सम्पादकीय में कृष्ण कुमार यादव ने स्वयं कहा है कि- ‘‘भारत का स्वाधीनता संग्राम एक ऐसा आन्दोलन था जो अपने आप में एक महाकाव्य है। लगभग एक शताब्दी तक चले इस आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा से संगठित हुए लोगों को एकजुट किया। यह आन्दोलन किसी एक धारा का पर्याय नहीं था बल्कि इसमें सामाजिक- धार्मिक-सुधारक, राष्ट्रवादी साहित्यकार, पत्रकार, क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, गाँधीवादी इत्यादि सभी किसी न किसी रूप में सक्रिय थे।‘‘ इन्ही विचारों को प्रामाणिकता प्रदान करते हुए इस शोध साहित्य में उन सभी विचारकों, चिन्तकों इतिहासकारों और अमर बलिदानी क्रान्तिकारी शहीदों से जुड़े एवं उनकी लेखनी से निकले ऐतिहासिक दस्तावेजों का संकलन किया गया है।
‘‘क्रान्ति यज्ञ ः 1857-1947 की गाथा‘‘‘ में जिन लेखों को संकलित किया गया है, उन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम भाग 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम की पृष्ठभूमि, क्रान्ति की तीव्रता और क्रान्ति के नायकों पर केन्द्रित है, तो दूसरे भाग में 1857 की क्रान्ति के परवर्ती आन्दोलनों और नायकों का चित्रण है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम पर स्वयं सम्पादक कृष्ण कुमार यादव का लिखा हुआ लेख ‘1857 की क्रान्ति ः पृष्ठभूमि और विस्तार‘ सर्वाधिक उल्लेखनीय है। इस आलेख में तत्कालीन ईस्ट इण्डिया कम्पनी की शोषण नीति और भारतीयों के प्रति उनकी क्रूरता को 1857 की क्रान्ति का प्रमुख कारण माना गया है। इसके अलावा भारतीय परम्पराओं और धार्मिक मान्यताओं को कुचल कर ईसाई धर्म के विस्तार की नीति को भी क्रान्ति उपजने का कारण माना गया है। घटनाओं का तर्कसंगत विश्लेषण करते हुए विद्वान लेखक ने उस क्रान्ति को मात्र ‘सिपाहियों का विद्रोह‘ अथवा ‘सामन्ती विरोध‘ के अंग्रेज इतिहासकारों के झूठे प्रचार का खण्डन भी किया है। कृष्ण कुमार ने बड़े नायाब तरीके से अंकित किया है कि 1857 की क्रान्ति को कुछ इतिहासकारों ने महास्वप्न की शोकान्तिका भले ही कहा हो, पर इस गर्वीले उपक्रम के फलस्वरूप ही भारत का नायाब मोती ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकल गया और जल्द ही कम्पनी भंग हो गई।
पं0 जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक ‘भारत की खोज‘ से उद्धृत ऐतिहासिक आलेख ‘1857ः आजादी की पहली अंगड़ाई‘ इस संग्रह का महत्वपूर्ण आलेख है, जिसमें विश्व इतिहास की झलक के साथ तत्कालीन राष्ट्रीय विचारधाराओं व उनके प्रभावों का सांस्कृतिक और सामाजिक पक्ष उजागर हुआ है। इसमें भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने उन सभी पक्षों का वर्णन किया है, जो जनमानस में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध उपजे आक्रोश का कारण थे। संग्रह में एक और महत्वपूर्ण आलेख डाॅ0 रामविलास शर्मा का ‘1857 की राज्य क्रान्तिःइतिहासकारों का दृष्टिकोण‘ है। 1857 की क्रान्ति का अध्ययन करने के लिए श्री शर्मा ने इतिहासकार श्री मजूमदार, श्री सेन और श्री जोशी के लेखों का विश्लेषण किया है। माक्र्सवादी दृष्टिकोण और पद्धति को स्वीकार करने वाले इतिहासकारों ने ब्रिटिश सत्ता का पक्ष लिया है। डाॅ0 शर्मा ने ऐसे तथ्यों का तर्कसंगत खण्डन किया है।
‘स्त्रियों की दुनियां घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करता आकांक्षा यादव का लेख ‘वीरांगनाओं ने भी जगाई स्वाधीनता की अलख‘ स्वातंत्र्य समर में महिलाओं की प्रभावी भूमिका को करीने से प्रस्तुत करता है। इनमें से कई वीरांगनाओं का जिक्र तो इतिहास के पन्नों में मिलता है, पर कई वीरांगनाओं की महिमा अतीत के पन्नों में ही दबकर रह गयी। इसी क्रम में आशारानी व्होरा द्वारा प्रस्तुत ‘प्रथम क्रान्तिकारी शहीद किशोरीःप्रीतिलता वादेदार‘ एवं स्वतंत्रता सेनानी युवतियों में सर्वाधिक लम्बी जेल सजा भुगतने वाली नागालैण्ड की रानी गिडालू के सम्बन्ध में लेख भी महत्वपूर्ण हैं। आजाद हिन्द फौज में लेफ्टिनेन्ट रहीं मानवती आय्र्या का मानना है कि भारत अपनी सज्जनता के व्यवहार के कारण साम्राज्यवादी अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों व हिंसावादी गतिविधियों का शिकार बना था। अपने लेख ‘‘भारतीय स्वतंत्रता की दो सशस्त्र क्रान्तियाँ‘‘ में वे 1857 की क्रान्ति व आजाद हिन्द फौज की लड़ाई को भारत की आजादी के प्रमुख आधार स्तम्भ के रूप में चिन्हित करती हैं।
1857 की क्रान्ति का इतिहास मंगल पाण्डे, बहादुर शाह जफर, तात्या टोपे, नाना साहब, अजीमुल्ला खान, मौलवी अहमदुल्ला शाह, कुँवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई जैसे क्रान्तिधर्मियों के बिना अधूरा है। विद्वान लेखक श्री राम शिव मूर्ति यादव ने 1857 की क्रान्ति का प्रथम शहीद मंगल पाण्डे को मानते हुए जो तथ्य प्रस्तुत किये हैं वह अंग्रेजों की बर्बरता-तानाशाही और निरंकुशता का पर्दाफाश करने वाले-प्रामाणिक-कानूनी-पहलू को उजागर करते हैं। जबलपुर के सेना आयुध कोर के संग्रहालय में रखे मंगल पाण्डे के फांसीनामा का हिन्दी अनुवाद इस लेख की विशिष्टता है। विजय नारायण तिवारी द्वारा अतीत के पन्नों से उद्धृत ‘‘बहादुरशाह जफर का ऐतिहासिक घोषणा पत्र‘‘ सांस्कृतिक और सामाजिक समरसता को आधार देता, सभी भारतीयों को संगठित होकर आतातायी के विरूद्ध आन्दोलित होने का निमंत्रण पत्र है। गुरिल्ला युद्ध में माहिर तात्या टोपे के सम्बन्ध में दिनेश बिहारी त्रिवेदी का लेख कई पहलुओं की पड़ताल करता है। अंग्रेजों ने ऐसे क्रान्तिधर्मी के लिए गलत नहीं लिखा था कि- ‘‘यदि उस समय भारत में आधा दर्जन भी तात्या टोपे सरीखे सेनापति होते तो ब्रिटिश सेनाओं की हार तय थी।‘‘ एक हाथ में कलम, दूजे में तलवार लेकर अवध क्षेत्र में क्रान्ति की अलख जगाने वाले विलक्षण वैरागी मौलवी अहमदुल्ला शाह ने क्रान्ति का अनूठा अध्याय रचा। कुमार नरेन्द्र सिंह द्वारा उन पर प्रस्तुत आलेख वर्तमान परिवेश में हर घटना को साम्प्रदायिक नजर से देखने वालों के लिए एक सबक है।
1857 की क्रान्ति का विश्लेषण संचार-तंत्र की भूमिका के बिना नहीं किया जा सकता। 1857 में हरकारों ने क्रान्तिकारियों को जबकि तार ने अंग्रेजों को जो मदद दी, उसने मोटे तौर पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जय-पराजय का लेखा-जोखा लिख दिया। अरविन्द सिंह ने ‘‘1857 और संचार तंत्र‘‘ में इन भावनाओं को बखूबी व्यक्त किया है। जैसे-जैसे लोगों में स्वाधीनता की अकुलाहट बढ़ती गयी, वैसे-वैसे अंग्रेजों ने स्वाधीनता की आकांक्षा का दमन करने के लिए तमाम रास्ते अख्तियार किये, जिनमें सबसे भयानक कालापानी की सजा थी। कृष्ण कुमार यादव का लेख ‘‘क्रान्तिकारियों के बलिदान की साक्षीः सेल्युलर जेल‘‘ मानवता के विरूद्ध अंग्रेजों के कुकृत्यों का अमानवीय पक्ष स्पष्ट करता है। इसमें कालापानी की सजा का आतंकित करने वाला सत्य और उससे संघर्ष करते क्रान्तिकारियों की वीरता-धीरता और राष्ट्रहित के लिए स्वतंत्रता की बलिबेदी पर कुर्बान हो जाने की अदम्य लालसा का आत्मोत्सर्गपरक वर्णन प्रेरक शब्दावली में व्यक्त किया गया है। वीर सावरकर की आत्मकथा से उद्धृत कालापानी की यातना का वर्णन तो रोंगटे खड़ा कर देता है।
1857 की क्रान्ति के जय-पराजय की अपनी मान्यतायें हैं। पर इसमें कोई शक नहीं कि 1947 की आजादी की पृष्ठभूमि 1857 में ही तैयार हो गई थी। यहाँ तक की फ्रांसीसी प्रेस ने भी 1857 को गम्भीरता से लिया था। स्वतंत्रता किसी एक व्यक्ति, जाति, धर्म या प्रान्त की मोहताज नहीं है बल्कि यह सबके सम्मिलित प्रयासों से ही प्राप्त हुई। ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक में डा0 एस0एल0 नागौरी ने स्वतंत्रता में जैनों के योगदान, डा0 एम0 शेषन ने तमिलनाडु के योगदान, के0 नाथ ने दलितों-पिछड़ों के योगदान को चिन्हित किया है। कहते है कि इतिहास उन्हीं का होता है, जो सत्ता में होते हैं पर सत्तासीन लोग यह भूल जाते हैं कि इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। यह सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किंवदंतियों इत्यादि के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। ऐतिहासिक घटनाओं के सार्थक विश्लेषण हेतु लोकेतिहास को भी समेटना जरूरी है। डा0 सुमन राजे ने अपने लेख ‘‘लोकेतिहास और 1857 की जन-क्रान्ति‘‘ में इसे दर्शाने का गम्भीर प्रयास किया है। भारतीय स्वाधीनता का संग्राम सिर्फ व्यक्तियों द्वारा नहीं लड़ा गया बल्कि कवियों और लोक गायकों ने भी लोगों को प्रेरित करने में प्रमुख भूमिका निभायी। इसी कड़ी में युवा लेखिका आकांक्षा यादव के लेख ‘‘लोक काव्य में स्वाधीनता‘‘ में 1857-1947 की स्वातंत्र्य गाथा का अनहद नाद सुनाई पड़ता है।
साहित्य का उद्देश्य है सामाजिक रूपान्तरण। यह अनायास ही नहीं है कि तमाम क्रान्तिकारी व नेतृत्वकर्ता अच्छे साहित्यकार व पत्रकार भी रहे है। वस्तुतः क्रान्ति में कूदने वाले युवक भावावेश मात्र से संचालित नहीं थे, बल्कि सुशिक्षित व विचार सम्पन्न थे। विचार-साहित्य-क्रान्ति का यह बेजोड़ संतुलन रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाकउल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल, भगत सिंह, बाल गंगाधर तिलक इत्यादि जैसे तमाम क्रान्तिकारियों में महसूस किया जा सकता है। डा0 सूर्य प्रसाद दीक्षित ने ‘‘क्रान्तिकारी आन्दोलन और साहित्य रचना‘‘ में क्रान्ति की मशाल को जलाये रखने में लेखनी के योगदान पर खूबसूरत रूप में प्रकाश डाला है। कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा प्रकाशित ‘‘प्रताप‘‘ अखबार की भूमिका स्वतंत्रता के आन्दोलन को गति देने में रही है। इस राष्ट्रीय अस्मिता के संरक्षक पत्र को तथा उसके यशस्वी देशभक्त संपादक को महत्व देकर सम्मान प्रदान करना अपनी साहित्यिक विरासत को सम्मान देना है। डा0 रमेश वर्मा द्वारा प्रस्तुत लेख ‘स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में प्रताप की भूमिका‘ को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। यह साहित्यिक क्रान्ति का ही कमाल था कि अंग्रेजों ने अनेक पुस्तकों और गीतों को प्रतिबन्धित कर दिया था। मदनलाल वर्मा ‘कांत‘ ने इन दुर्लभ साहित्यिक रचनाओं को अनेक विस्मृत आख्यानों और पन्नों से ढँूढ़ निकाला है और ‘‘प्रतिबन्धित क्रान्तिकारी साहित्य‘‘ में ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त की गयी पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं पर सूचनात्मक ढंग में महत्वपूर्ण लेख लिखा है।
1857 की क्रान्ति के 150 वर्ष पूरे होने के साथ-साथ 2007 का महत्व इसलिए भी और बढ़ जाता है कि यह सरदार भगत सिंह, सुखदेव और दुर्गा देवी वोहरा का जन्म शताब्दी वर्ष है। योग्य सम्पादक द्वय कृष्ण कुमार और आकांक्षा यादव की यह खूबी ही कही जायेगी कि इस तथ्य को विस्मृत करने की बजाय उनके योगदान को भी क्रान्ति यज्ञ में उन्होंने रेखांकित किया। भगत सिंह पर उनके क्रान्तिकारी साथी शिव वर्मा द्वारा लिखा संस्मरणात्मक आलेख इस पुस्तक को महत्वपूर्ण बनाती है तो ‘पहला गिरमिटिया‘ से चर्चित गिरिराज किशोर ने ‘‘जब भगत सिंह ने हिन्दी का नारा बुलन्द किया‘‘ में एक नये संदर्भ में भगत सिंह को प्रस्तुत किया है। कोई भी देश अपनी भाषा और साहित्य के बिना अपनी पहचान नहीं बना सकता और भारतीय संदर्भ में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने की भगत सिंह की स्वर्णिम कल्पना वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पुनः प्रासंगिक है। भगत सिंह भावावेश होने की बजाय तार्किक ढंग से अपनी बात कहना पसन्द करते थे। यतीन्द्र नाथ दास की शहादत के बाद ‘माडर्न रिव्यू‘ के सम्पादक द्वारा ‘इन्कलाब जिन्दाबाद‘ नारे की सम्पादकीय आलोचना के प्रत्युत्तर में भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त द्वारा लिखा गया ऐतिहासिक पत्र ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक में समाहित है। इस पत्र में क्रान्ति शब्द का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिर्वतन की भावना एवं आकांक्षा‘ व्यक्त किया गया था। क्रान्तिकारी सुखदेव पर सत्यकाम पहारिया का लेख और दुर्गा देवी वोहरा पर आकांक्षा यादव का लेख उनके विस्तृत जीवन पर प्रकाश डालते हैं। आकांक्षा यादव ने इस तथ्य को भी उदधृत किया है कि एक ही वर्ष की विभिन्न तिथियों में जन्मतिथि पड़ने के बावजूद भगतसिंह अपना जन्मदिन दुर्गा देवी के जन्मदिन पर उन्हीं के साथ मनाते थे और उनके पति भगवतीचरण वोहरा सहित तमाम क्रान्तिकारी इस अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे।
‘‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा‘‘ की भावना को आत्मसात करते हुए अमित कुमार यादव ने ‘स्वतंत्रता संघर्ष और क्रान्तिकारी आन्दोलन‘ के माध्यम से क्रान्तिकारी गतिविधियों को बखूबी संजोया है तो सत्यकाम पहारिया ने स्वाधीनता में योगदान देने वाले तमाम मनीषियों व क्रान्तिकारियों की भूमिकाओं को सहेजा है। क्रान्तिकारी मन्मथनाथ गुप्त की कलम से अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला देनी वाले ‘काकोरी काण्ड का सच‘ युवा पीढ़ी का ध्यान आकृष्ट करता है। चन्द्रशेखर आजाद क्रान्तिकारी आन्दोलन में प्रमुख स्तम्भ थे। क्रान्तिकारी रामकृष्ण खत्री का उन पर लिखा संस्मरणात्मक आलेख कई छुये-अनछुये पहलुओं की पड़ताल करता है। आजाद के माउजर पिस्तौल की रोचक दास्तां भी ‘क्रान्ति-यज्ञ‘ में शामिल है। राम प्रसाद बिस्मिल की 110वीं जयन्ती पर संकलित लेख ‘कलम और रिवाल्वर पर बिस्मिल की समान जादूगरी‘ प्रेरणास्पद है। स्वाधीनता आन्दोलन में स्वराज्य, स्वदेशी व वहिष्कार की भूमिका पर अलगू राय शास्त्री का लेख उस समय की भावनाओं को खूबसूरती से अभिव्यक्त करता है तो डा0 बद्रीनारायण तिवारी का चेतावनी भरा आलेख स्वाधीनता संग्राम की बलिदानी भावना को सहेजने और उसे बनाये रखने का संदेश देता है।
स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास महात्मा गाँधी के बिना अधूरा है। संयुक्त राष्ट्र संघ वर्ष 2007 से ‘गाँधी जयन्ती‘ को ‘विश्व अहिंसा दिवस‘ के रूप में मनाये जाने की घोषणा करके शान्ति व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता को एक बार पुनः सिद्ध कर दिया है। ऐसे में कृष्ण कुमार यादव का लेख ‘समग्र विश्वधारा में व्याप्त हैं महात्मा गाँधी‘ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में काफी प्रासंगिक है। कानपुर 1857 की क्रान्ति और उसके पश्चात भी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है। नाना साहब, तात्या टोपे व अजीमुल्ला खां ने यहीं से सारे देश में क्रान्ति की अलख जगाई तो कालान्तर में भगत सिंह व ‘आजाद‘ जैसे तमाम क्रान्तिकारियों हेतु यह धरती प्रेरणा-बिन्दु बनी। ऐसे में ‘जंग-ए-आजादी कानपुर‘ लेख कई महत्वपूर्ण घटनाओं को सामने लाता है। गणेश शंकर विद्यार्थी की सुपौत्री डाॅ0 मधुलेखा विद्यार्थी ने भी स्वाधीनता संग्राम में कानपुर की भूमिका पर विस्तृत प्रकाश डाला है।
‘‘क्रान्ति-यज्ञ‘‘ के विशेषता सिर्फ यह नहीं है कि इसमें स्वाधीनता संग्राम से जुड़े हर पहलू को छूने की कोशिश की गयी है बल्कि इसमें अजीमुल्ला खां द्वारा रचित ‘1857 का महाप्रयाण गीत‘, राष्ट्रगीत ‘वन्देमातरम्‘, पार्षद जी द्वारा रचित ‘झण्डा गीत‘, क्रान्तिकारियों की गीताः1857-द वार आफ इंडिपेन्डेन्स एवं भारत-भ्रमण पर निकली ‘आजादी एक्सप्रेस‘ जैसी रोचक बातों को शामिल कर इसे जीवन्त व समसामयिक बनाया गया है। आवरण पृष्ठ पर मशाल, तोप व ढाल के साथ आजादी की लड़ाई को धार देने वाले महापुरूषों के चित्रों का अंकन इस पुस्तक को और भी खूबसूरत बनता है।
विश्व साहित्य में राष्ट्रीय भावना का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी साहित्य ने भारतवर्ष की जीवन गति को भी क्रान्तिदर्शी भूमिका प्रदान करने में योगदान दिया है। हमें अपने राष्ट्रभक्त क्रान्तिकारियों के प्रति कृतज्ञ होना ही चाहिए। कृष्ण कुमार और आकांक्षा यादव ने अपने अनेक साहित्यिक आलेखों में सामाजिक शुचिता के जीवन्त बिम्ब प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने साहित्यिक सन्दर्भों में सामाजिक प्रगति के अनेक नूतन आयाम स्थापित करने वाले आलेख लिखे हैं तो और बालमन के निकट आदर्श प्रस्तुत करने वाले प्रेरक सृजन को भी अपनी साहित्यिक प्रतिभा से अभिव्यक्ति प्रदान करने में सफलता पाई है। इसी गति को आगे बढ़ाते हुए उनका प्रस्तुत संकलन ‘क्रान्ति यज्ञ‘ अपनी अस्मिता का आदर्श संरक्षक बना है। निःसन्देह यह संकलन लेखकीय कर्तव्य का ही प्रतिपालन है। इससे अतीत और वर्तमान की जो भूली-बिसरी विरासत थी वह समाज के सामने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राष्ट्रीय स्तर पर आदर्शोन्मुख होकर प्रस्तुत हो सकी है। हमारी वर्तमान पीढ़ी और आने वाले समय और समाज के लिए यह पुस्तक स्वाभिमान का, मानवीय गुणों का और राष्ट्रप्रेम का अनुपम पथ प्रशस्त करने वाली, संदर्शिका बनेगी तथा इसके सन्दर्भों से शोध और चिंतनपरक साहित्य को उत्कृष्ट सन्दर्भ प्राप्त हो सकेंगे। ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक वस्तुतः अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का ही दर्शन है।
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समीक्ष्य पुस्तक ः क्रान्ति-यज्ञ (1857-1947 की गाथा)
सम्पादकद्वय ः कृष्ण कुमार यादव, भारतीय डाक सेवा, वरिष्ठ डाक अधीक्षक, कानपुर kkyadav.y@ rediffmail. com
आकांक्षा यादव, प्रवक्ता, राजकीय बालिका इण्टर कालेज, कानपुर kk_akanksha@yahoo.com
प्रकाशक ः मानस संगम, प्रयाग नारायण शिवाला, कानपुर
समीक्षक ः गोवर्धन यादव, 103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा, मध्य प्रदेश
Friday, August 8, 2008
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2 comments:
Resp. sir
Maine sari taswir dekhi aur pahli bar aapk blog padha..hum jaise young journalist ke liye kaphi gyanwardhak hai..
thanks
U.S.Khaware
khaware@live.com
बहुत अच्छा लगा। चौथी दुनिया को इस तरह याद करके।
राजशेखर
http://munafa.blogspot.com/
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