अरविंद कुमार सिंह
आजादी के बीते छह दशको के दौरान संचार माध्यमों में हिंदी की स्थिति बहुत मजबूत हुई है और कई तरह की चुनौतियों से जूझती हुई हिंदी पत्रकारिता आज तमाम नए कीर्तिमान बना रही है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के विस्तार के बावजूद हिंदी अखबारों का प्रसार लगातार बढ़ रहा है। चैनलों ने कुछ अखबारों का राजस्व भले प्रभावित किया है,पर बड़े अखबार इससे एक दम प्रभावित नहीं हुए हैं। विस्तार से खबरे जानने का साधन आज भी अखबार ही बने हुए है। चैनलों की संख्या भारत में बढ़ रही है । इनमें सबसे ज्यादा संख्या हिंदी चैनलों की है। देश के 79.1 फीसदी क्षेत्र और 91.4 फीसदी आबादी पर दूरदर्शन की पहुंच है। देश में 21.27 ·रोड़ घरों में टीवी है और इनमें 56 फीसदी में केबल कनैक्सन है।
लेकिन इस चुनौती के बाद भी आखिर कुछ तो वजह होगी कि हिंदी के अखबारों का प्रसार बहुत तेजी से बढ़ रहा है। आजादी के पहले भारत में किसी भी हिंदी अखबार की प्रसार संख्या 30 हजार से ज्यादा नहीं थी। 1996 तक देश के शीर्षस्थ तीन हिंदी दैनिको में पंजाब केसरी जालंधर ( 3.12 लाख) ,पंजाब केसरी दिल्ली ( 3.07 लाख) तथा राजस्थान पत्रिका जयपुर (2।06 लाख) का उल्लेख होता था। पर कुछ ही सालों में विशुद्द क्षेत्रीय माने जानेवाले हिंदी के अखबारों ने राष्ट्रीय अखबारों को भी पीछे छोड़ दिया है। आज देश के 15 सबसे बड़े हिंदी अखबारों की सूची में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर , हिंदुस्तान, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका , पंजाब केसरी, नवभारत टाइम्स, नवभारत, प्रभात खबर, लोकमत समाचार, हरिभूमि, नयी दुनिया, राष्ट्रीय सहारा तथा नवज्योति शामिल हो गए हैं। इनमें से कुछ अखबारों की उम्र दो दशक की भी नहीं हुई है। इतना ही नहीं देश के सर्वाधिक बिक्रीवाले प्रमुख समाचार पत्रों में दैनिक जागरण ,दैनिक भास्कर ,मलयाला मनोरमा, दैनिक थांती,अमर उजाला,इनाडु, लोकमत ,मातृभूमि, हिंदुस्तान ,टाइम्स आफ इंडिया की गणना हो रही है। एनआरएस सर्वे 2003 में 25 संस्करणों के साथ जागरण के पास 1।49 करोड़ पाठक थे जिनकी संख्या 2005 में 2.12 करोड़ हो गयी। दैनिक भास्कर के पाठको की संख्या भी इसी दौरान 1.57 करोड़ से 1.73 करोड़ हो गयी, जबकि हरिभूमि के पाठको की संख्या 66.60 लाख से 84 लाख हो गयी। 1989-90 में मैने अमर उजाला के राष्ट्रीय व्यूरो में जब वरिष्ठ संवाददाता के रूप में जब ज्वाइन किया था तो मेरे ज्यादातर मित्रों ने इस आधार पर इसे ज्वाइन करने से मना किया था कि यह तो पश्चिमी उ.प्र. का अखबार है। दैनिक भास्कर तब म.प्र. का अखबार था और दैनिक जागरण उ.प्र. का अखबार बनने की कोशिश कर रहा था। लेकिन आंकड़े साबित करते हैं कि इन अखबारों ने देश के कई हिस्सों में और विशेष रूप से देहाती और कस्बाई इलाको में अपनी पैठ बनायी है।
हिंदी की हैसियत अब बहुत बढ़ गयी है। भारत में तो आजादी के बाद हिन्दी दिवस मनाने की परंपरा शुरू हुई थी पर 10 जनवरी 2006 से विश्व हिंदी दिवस मनाना भी शुरू हो गया है। 21वीं शताव्दी को हिंदी के पत्रकार व लेखक हिंदी व देवनागरी लिपि की शताब्दी बता रहे हैं। 165 विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी में पठन पाठन हो रहा है। बहुराष्ट्रीय कपनियां अपने लोगों को देश के गांवों में माल बेचने के लिए हिंदी सिखा रही है। अमेरिकी लोग हिंदी सीख रहे हैं और काबुल श्रीलंका के लोग भी। कुछ समय पहले भाषाविद् जयंती प्रसाद नौटियाल ने तथ्यों के साथ साबित किया कि हिंदी ही दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाती है। इसे 100 करोड़ लोग बोलते हैं। हिंदी ब्रिटेन में दूसरी सर्वाधि· बोलनेवाली भाषा बन गयी है और दक्षिण एशियाई लोगों ने इसे ही संपर्क भाषा बना लिया है। दुनिया में अगर चीनी तथा अंग्रेजी ताकतवर है तो हिंदी भी कम ताकतवर नहीं है।
बीते तीन दशको में भारत में जनसंचार माध्यमों के तीब्र विकास में सूचना और संचार क्रांति के साथ भूमंडलीकरण और प्रौद्योगिकी की भी अपनी अहम भूमिका है। भारत के हिंदी भाषी इलाको में साक्षरता के बढऩे के कारण हिंदी की पकड़ और मजबूत हुई है। हिंदी इलाका एक बड़ा पाठक , दर्शक या श्रोता ही नहीं बड़ा बाजार भी है इस नाते बहुत संसाधन भी यहां खूब लगाए गए हैं। हिंदी के नाम पर बहुत से प्रकाशन काफी पैसा और समद्दि भी कमा रहे हैं। अंग्रेजी के कई नामी पत्रकारों को हिंदी अखबारों में छपे बिना भोजन हजम नहीं होता। वास्तव में हिंदी अखबारों ने कुलदीप नैयर से लेकर खुशवंत सिंह जैसे लेखको को गली कूचों तक में पहुंचा दिया अन्यथा ये आभिजात्य वर्गो के घरों तक ही सीमित थे। हिंदी के चैनलों में कई अंग्रेजी के पत्रकार पहुंच गए हैं।
चैनलों की चकाचौंध के बीच में हिंदी में ग्लैमर के नाते बड़ी संख्या में युवा पत्रकार आकर्षित हो रहे हैं। गली-गली में पत्रकारिता संस्थान खुल गए हैं। हिंदी के तमाम चैनलों की गलाकाट जंग में आज क्या हो रहा है यह सबको पता है। पर जहां हिंदी चैनलों में अच्छा काम हो रहा है वह अंग्रेजी के पत्रकारों की बदौलत हो रहा है और जहां उमा खुराना जैसा स्टिंग आपरेशन हो रहा है, वह सब हिंदी के अधकचरे पत्रकार कर रहे हैं। कम से कम यही धारणा बनाने की कोशिश तो लगातार हो ही रही है।
चैनल, रेडियो या अखबार में काम करनेवाले पत्रकार वास्तव में एक ही परिवार के अलग अलग हिस्से हैं। पर अगर बारीकी से देखें तो पता चलता है कि हिंदी चैनल में महत्व की जगहों पर अंग्रेजी के ही लोगों का कब्जा हो गया है। जनसंपर्क या ताकत बढ़ानेवाले जितने भी कार्यक्रम हैं वे सभी इन अंग्रेजीवालों के ही पास हैं। हिंदी के पत्रकारों को भले ही यह पता होगा कि कमरवहीद नकवी आजतक की रीढ़ हैं और एसपी सिंह के बाद उनके ही दिमाग से इतना लंबा चौड़ा नेटवर्क खड़ा हो सका , पर दर्शक तो प्रभु चावला को जानता है,जिनका हिंदी में योगदान दस्तखत करने से ज्यादा नहीं होगा। वह सभी विषयों के विशेषज्ञ के रूप में आज तक पर पेश किए जाते हैं। अब अंग्रेजी के लोग तो अंग्रेजी में ही सोचते हैं और वैसा ही सवाल करते हैं। दर्शको को याद होगा कि साक्षात्कार के दौरान ही वह एक बार जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे। लेकिन यह हाल यह हाल कई चैनलों का है। जो हिंदी के पत्रकार अखबारों से इस परिकल्पना के साथ गए थे कि अपनी प्रतिभा वह इन चैनलों को चमकाने में करेगें उनकी हालत सांप छछंूदर जैसी हो गयी है।
Friday, September 19, 2008
भारत का पहला शहीद पत्रकार
मौलवी मोहम्मद बाकर
अरविंद कुमार सिंह
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तमाम राजाओं के नाम प्रमुखता से आते हैं, पर पत्रकारों की बलिदानी भूमिका पर खास रोशनी नहीं पड़ती है। पर जब सभी आहुति दे रहे थे तो भला उस समय के पत्रकार पीछे कैसे रहते? यह सही है कि1857 की बुनियाद सिपाहियों ने डाली थी शुरू से अंत तक वही इसकी रीढ़ बने रहे, लेकिन इसमें भाग लेनेवालों में मजदूर किसान, जागीरदार, पुलिस ,सरकारी मुलाजिम, पेंशनर, पूर्व सैनिक तथा लेखक और पत्रकार भी थे। इस क्रांति में पत्रकारिता क्षेत्र के नायक बने थे मौलवी मोहम्मद बाकर ,जिनके नेतृत्व में प्रकाशित होनेवाले देहली उर्दू अखबार ने 1857 में सैकड़ों तोपों जितनी मार की । उनकी आग उगलती लेखनी से अंग्रेज बहुत कुपित थे। पर वह किसी दबाव में नहीं आए और लगातार लेखनी से जंग जारी रखी। दिल्ली पर कब्जा कर लेने के बाद अंग्रेजों ने मौलवी बाकर पर कई तरह के झूठे आरोप लगाए और उनको फांसी पर लटका दिया गया। देहली उर्दू अखबार के लेखों ,रिपोर्टों, अपीलों, काव्य रचनाओं तथा फतवों से अंग्रेज अधिकारी खासे नाराज थे। इसी नाते अखबार और उसके संपादक पर बगावत को भड़काने का आरोप लगाया गया। महान सेनानी मौलवी बाकर को दिल्ली में 14 सितंबर 1857 को गिरफ्तार किया गया और मुकदमे का नाटक किए बिना ही 16 सितंबर 1857 को कुख्यात अधिकारी मेजर हडसन ने फांसी पर लटका दिया। लेकिन यह दुख: कि बात है कि पत्रकारिता क्षेत्र के इस पहले और महान बलिदानी की भूमिका से खुद मीडिया जगत के ही अधिकतर लोग अपरिचित हैं। १६ सितंबर २००७ को पहली बार इस आलेख के लेखक के संयोजन में प्रेस क्लब आफ इंडिया ने शहीद पत्रकार की याद में एक समारोह किया था। इसके बाद जानेमाने उर्दू पत्रकार और उर्दू संपादक सम्मेलन के महासचिव मासूम मुरादाबादी ने एक पुस्तक भी लिखी, जिसका हाल में उपराष्ट्रपति ने लोकार्पण किया । इस पुस्तक में विलियम डेंपरिल के तमाम दावों की धज्जी उड़ाई गयी है। उन्होने तमाम प्रमाणों से यह भी स्थापित किया है कि मौलवी बाकर की फांसी देने की तिथि १६ सितंबर 1857 थी,जबकि कई दस्तावेजों में यह 17 सितंबर भी अंकित है।
देहली उर्दू अखबार जैसी बागी पत्रकारिता को ही नियंत्रित करने के लिए 13 जून 1857 को लार्ड केनिंग एक गलाघोंटू कानून लेकर आए। राजद्रोह पर बहुत कड़ी सजा के साथ पूर्व अनुमति के बिना प्रेस खोलना व उसे चलाना गैरकानूनी बना दिया गया। पर उस समय पयामे आजादी , देहली उर्दू अखबार ,समाचार सुधावर्षण और हिंदू पैट्रियाट समेत दर्जनो अखबारों ने सच लिखना जारी रखा था। उस समय एक से दूसरे जगहों पर आवाजाही या संदेश भेजना बहुत कठिन था। ऐसे माहौल में भी महान क्रांति का दायरा बहुत लंबे चौड़े इलाके तक रहा। इससे यह समझा जा सकता है कि चिंगारी को फैलाने में कितने लोगों का श्रम और बलिदान निहित रहा होगा। जाहिर है कि उस समय के कई अखबारों ने भी इसे गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। अखबारों ने बागियों के भीतर नया जोश और जज्बा पैदा करने का काम किया। शायद इसी नाते सभी तथ्यों को परख कर लार्ड केनिंग ने 13 जून 1857 को काफी तीखी टिप्पणी की थी --
.......पिछले कुछ हफ्तों में देसी अखबारों ने समाचार प्रकाशित करने की आड़ में भारतीय नागरिको के ·े दिलों में दिलेराना हद तक बगावत की भावना पैदा कर दी है।
बगावत के विस्तार में निसंदेह अखबारों का भी योगदान था। देहली उर्दू अखबार भारत का ऐसा अकेला राजनीतिक अखबार था ,जिसने अन्य भाषाओं के अखबारों को भी राह दिखायी । भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में इस अखबार के 8 मार्च 1857 से 13 सितंबर 1857 तक के अधिकतर अंक उपलव्ध हैं। दिल्ली की स्वतंत्रता के पहले के अंक भी काफी महत्व के हैं।
मौलवी मोहम्मद बाकर केवल देहली उर्दू अखबार के संपादक और स्वामी ही नहीं ,बल्कि जाने- माने शिया विद्वान भी थे। इस अखबार के प्रिंट लाइन में प्रकाशक के रूप में सैयद अव्दुल्ला का नाम छपता था। दरबार में भी मौलवी बाकर की गहरी पैठ और सम्मान था ,जबकि दिल्ली शहर में उनकी विशेष हैसियत थी। मशहूर शायर जौक समेत कई जानेमाने लोग उनके मित्र थे। शुरूआत में अपने पिता से ही मौलवी बाकर को शिक्षा मिली। बाद में दिल्ली के जाने-माने विद्वान मियां अब्दुल रज्जाक के सानिध्य में उन्होने शिक्षा पायी और 1825 में उनका देहली कालेज में दाखिला कराया गया,जहां अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वह शिक्षक बने ।
अपनी शिक्षा की बदौलत वह महत्वपूर्ण सरकारी ओहदों पर 16 साल तक रहे ,पर पिता के कहने पर उन्होने नौकरी छोड़ दी । उन्होने छापाखाना लगाया और देहली उर्दू अखबार शुरू किया हालांकि अंग्रेजी राज में अखबार निका लना बहुत टेढ़ा काम था । पर मौलवी ने उर्दू अखबार प्रेस खड़ा किया । जिस मकान से यह समाचार पत्र प्रकाशित किया गया वह दरगाहे पंजा शरीफ (कश्मीरी गेट) से बिल्कुल मिला था और आज भी मौजूद है। इस अखबार ने देश के विभिन्न भागों में अपने प्रतिनिधि भी नियुक्त किए थे।
मौलवी बाकर की कलम आग उगलती थी। उन्होने समाज के सभी वर्गो को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया । क्रांति के सबसे महत्वपूर्ण केद्र दिल्ली में यह अखबार क्रांति को जनक्रांति बनाने में काफी सहायक हुआ। देहली उर्दू अखबार बाकी अखबारों से इस नाते भी विशिष्ट है क्योंकि यही क्रांति के बड़े नायको के काफी करीब था और प्रमुख घटनाओं को इसके संपादक तथा संवाददाताओं ने बहुत नजदीक से देखा। वैसे तो जामे जहांनुमा को उर्दू का पहला अखबार माना जाता है,पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका से बाहर था।
देहली उर्दू अखबार ने आजादी की लडाई में अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया और ऐतिहासिक बलिदान दिया। 1857 के पहले इस अखबार में दिल्ली के सभी क्षेत्रों को कवर किया जाता था। पर आजादी की जंग के विस्तार के साथ ही इस अखबार का तेवर भी तीखा होता गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी के लूट राज के खिलाफ खुल कर इसने लिखा और 1857 से संबंधित खबरों को बहुत प्रमुखता से छापा। अखबार का प्रयास था िक महत्वपूर्ण घटनाओं के समय उसके संवाददाता मौके पर मौजूद रहें। इतना ही नहीं जनभावनाओं को और विस्तार देने तथा जोश भरने के लिए इस अखबार ने वीर रस का साहित्य भी छापा , धर्मगुरूओं के फतवों व बागी नेताओं के घोषणापत्र को प्रमुखता से स्थान मिला। ऐसी बहुत सी खबरें छापी गयीं जिससे बागियों का हौंसला और बुलंद हो। मौलवी बाकर के पुत्र मोहम्मद हुसैन आजाद काफी अच्छे शायर थे । क्रांति के दौरान उनकी रचनाएं अखबार के पहले पेज पर छपती थी। 1857 को लेकर उनकी यह नज्म 25 मई 1857 के अंक में , मेरठ में विद्रोही सेना की विजय के समाचार के साथ छपी थी---
सब जौहरे अक्ल उनके रहे ताक पर रक्खे
सब नाखूने तदबीरो खुर्द हो गए बेकार
काम आए न इल्मो हुनरो हिकमतो फितरत
पूरब के तिलंगो ने लिया सबको वहीं मार।
जून 1857 के बाद अखबार की भाषा-शैली में काफी बदलाव आया। वह जहां एक ओर सिपाहियों की खुल कर तारीफ कर रहा था वहीं, कमियों पर भी खुल कर कलम चला रहा था। सिपाहियों को वह सिपाह-ए-दिलेर ,तिलंगा-ए-नर-शेर तथा सिपाह ए हिंदुस्तान का संबोधन दे रहा था। हिंदू सिपाहियों को वह अर्जुन या भीम बनने की नसीहत दे रहा था तो दूसरी ओर मुसलमान सिपाहियों को रूस्तम ,चंगेज और हलाकू की तरह अंग्रेजों को समाप्त करने की बात कर रहा था। सिपाहियों के प्रति उसकी विशेष सहानुभूति तो दिखती ही है,तमाम खबरों को पढ़कर यह भी नजर आता है, उसके पत्रकारों की सिपाहियों के बीच गहरी पैठ थी।
देहली उर्दू अखबार का विचार पक्ष भी काफी मजबूत था। अखबार हिन्दू -मुसलिम एकता का प्रबल पैरोकार था। उसने कई मौको पर अंग्रेजों की सांप्रदायिक तनाव फैलाने की चालों को बेनकाब कर हिंदुओं और मुसलमानो दोनो को खबरदार किया । कई दृष्टियों से यह महान अखबार और उसके संपादक मौलवी बाकर सदियों तक याद किया जाते रहेगें। यही नहीं भारतीय पत्रकारिता के इस पहले महान बलिदानी से युवा पत्रकार हमेशा प्रेरणा पाते रहेंगे। सरकार को चाहिए , इस महान सेनानी की याद में कमसे कम एक स्मारक् बनाया जाये और डाक टिकट जारी किया जाये। इसी के साथ भारत के पत्रकार संगठनो को भी चाहिए, देश के इस पहले शहीद सेनानी की याद में 16 सितंबर को देश भर में शहादत दिवस भी मनाया जाए ।
अरविंद कुमार सिंह
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तमाम राजाओं के नाम प्रमुखता से आते हैं, पर पत्रकारों की बलिदानी भूमिका पर खास रोशनी नहीं पड़ती है। पर जब सभी आहुति दे रहे थे तो भला उस समय के पत्रकार पीछे कैसे रहते? यह सही है कि1857 की बुनियाद सिपाहियों ने डाली थी शुरू से अंत तक वही इसकी रीढ़ बने रहे, लेकिन इसमें भाग लेनेवालों में मजदूर किसान, जागीरदार, पुलिस ,सरकारी मुलाजिम, पेंशनर, पूर्व सैनिक तथा लेखक और पत्रकार भी थे। इस क्रांति में पत्रकारिता क्षेत्र के नायक बने थे मौलवी मोहम्मद बाकर ,जिनके नेतृत्व में प्रकाशित होनेवाले देहली उर्दू अखबार ने 1857 में सैकड़ों तोपों जितनी मार की । उनकी आग उगलती लेखनी से अंग्रेज बहुत कुपित थे। पर वह किसी दबाव में नहीं आए और लगातार लेखनी से जंग जारी रखी। दिल्ली पर कब्जा कर लेने के बाद अंग्रेजों ने मौलवी बाकर पर कई तरह के झूठे आरोप लगाए और उनको फांसी पर लटका दिया गया। देहली उर्दू अखबार के लेखों ,रिपोर्टों, अपीलों, काव्य रचनाओं तथा फतवों से अंग्रेज अधिकारी खासे नाराज थे। इसी नाते अखबार और उसके संपादक पर बगावत को भड़काने का आरोप लगाया गया। महान सेनानी मौलवी बाकर को दिल्ली में 14 सितंबर 1857 को गिरफ्तार किया गया और मुकदमे का नाटक किए बिना ही 16 सितंबर 1857 को कुख्यात अधिकारी मेजर हडसन ने फांसी पर लटका दिया। लेकिन यह दुख: कि बात है कि पत्रकारिता क्षेत्र के इस पहले और महान बलिदानी की भूमिका से खुद मीडिया जगत के ही अधिकतर लोग अपरिचित हैं। १६ सितंबर २००७ को पहली बार इस आलेख के लेखक के संयोजन में प्रेस क्लब आफ इंडिया ने शहीद पत्रकार की याद में एक समारोह किया था। इसके बाद जानेमाने उर्दू पत्रकार और उर्दू संपादक सम्मेलन के महासचिव मासूम मुरादाबादी ने एक पुस्तक भी लिखी, जिसका हाल में उपराष्ट्रपति ने लोकार्पण किया । इस पुस्तक में विलियम डेंपरिल के तमाम दावों की धज्जी उड़ाई गयी है। उन्होने तमाम प्रमाणों से यह भी स्थापित किया है कि मौलवी बाकर की फांसी देने की तिथि १६ सितंबर 1857 थी,जबकि कई दस्तावेजों में यह 17 सितंबर भी अंकित है।
देहली उर्दू अखबार जैसी बागी पत्रकारिता को ही नियंत्रित करने के लिए 13 जून 1857 को लार्ड केनिंग एक गलाघोंटू कानून लेकर आए। राजद्रोह पर बहुत कड़ी सजा के साथ पूर्व अनुमति के बिना प्रेस खोलना व उसे चलाना गैरकानूनी बना दिया गया। पर उस समय पयामे आजादी , देहली उर्दू अखबार ,समाचार सुधावर्षण और हिंदू पैट्रियाट समेत दर्जनो अखबारों ने सच लिखना जारी रखा था। उस समय एक से दूसरे जगहों पर आवाजाही या संदेश भेजना बहुत कठिन था। ऐसे माहौल में भी महान क्रांति का दायरा बहुत लंबे चौड़े इलाके तक रहा। इससे यह समझा जा सकता है कि चिंगारी को फैलाने में कितने लोगों का श्रम और बलिदान निहित रहा होगा। जाहिर है कि उस समय के कई अखबारों ने भी इसे गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। अखबारों ने बागियों के भीतर नया जोश और जज्बा पैदा करने का काम किया। शायद इसी नाते सभी तथ्यों को परख कर लार्ड केनिंग ने 13 जून 1857 को काफी तीखी टिप्पणी की थी --
.......पिछले कुछ हफ्तों में देसी अखबारों ने समाचार प्रकाशित करने की आड़ में भारतीय नागरिको के ·े दिलों में दिलेराना हद तक बगावत की भावना पैदा कर दी है।
बगावत के विस्तार में निसंदेह अखबारों का भी योगदान था। देहली उर्दू अखबार भारत का ऐसा अकेला राजनीतिक अखबार था ,जिसने अन्य भाषाओं के अखबारों को भी राह दिखायी । भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में इस अखबार के 8 मार्च 1857 से 13 सितंबर 1857 तक के अधिकतर अंक उपलव्ध हैं। दिल्ली की स्वतंत्रता के पहले के अंक भी काफी महत्व के हैं।
मौलवी मोहम्मद बाकर केवल देहली उर्दू अखबार के संपादक और स्वामी ही नहीं ,बल्कि जाने- माने शिया विद्वान भी थे। इस अखबार के प्रिंट लाइन में प्रकाशक के रूप में सैयद अव्दुल्ला का नाम छपता था। दरबार में भी मौलवी बाकर की गहरी पैठ और सम्मान था ,जबकि दिल्ली शहर में उनकी विशेष हैसियत थी। मशहूर शायर जौक समेत कई जानेमाने लोग उनके मित्र थे। शुरूआत में अपने पिता से ही मौलवी बाकर को शिक्षा मिली। बाद में दिल्ली के जाने-माने विद्वान मियां अब्दुल रज्जाक के सानिध्य में उन्होने शिक्षा पायी और 1825 में उनका देहली कालेज में दाखिला कराया गया,जहां अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वह शिक्षक बने ।
अपनी शिक्षा की बदौलत वह महत्वपूर्ण सरकारी ओहदों पर 16 साल तक रहे ,पर पिता के कहने पर उन्होने नौकरी छोड़ दी । उन्होने छापाखाना लगाया और देहली उर्दू अखबार शुरू किया हालांकि अंग्रेजी राज में अखबार निका लना बहुत टेढ़ा काम था । पर मौलवी ने उर्दू अखबार प्रेस खड़ा किया । जिस मकान से यह समाचार पत्र प्रकाशित किया गया वह दरगाहे पंजा शरीफ (कश्मीरी गेट) से बिल्कुल मिला था और आज भी मौजूद है। इस अखबार ने देश के विभिन्न भागों में अपने प्रतिनिधि भी नियुक्त किए थे।
मौलवी बाकर की कलम आग उगलती थी। उन्होने समाज के सभी वर्गो को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया । क्रांति के सबसे महत्वपूर्ण केद्र दिल्ली में यह अखबार क्रांति को जनक्रांति बनाने में काफी सहायक हुआ। देहली उर्दू अखबार बाकी अखबारों से इस नाते भी विशिष्ट है क्योंकि यही क्रांति के बड़े नायको के काफी करीब था और प्रमुख घटनाओं को इसके संपादक तथा संवाददाताओं ने बहुत नजदीक से देखा। वैसे तो जामे जहांनुमा को उर्दू का पहला अखबार माना जाता है,पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका से बाहर था।
देहली उर्दू अखबार ने आजादी की लडाई में अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया और ऐतिहासिक बलिदान दिया। 1857 के पहले इस अखबार में दिल्ली के सभी क्षेत्रों को कवर किया जाता था। पर आजादी की जंग के विस्तार के साथ ही इस अखबार का तेवर भी तीखा होता गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी के लूट राज के खिलाफ खुल कर इसने लिखा और 1857 से संबंधित खबरों को बहुत प्रमुखता से छापा। अखबार का प्रयास था िक महत्वपूर्ण घटनाओं के समय उसके संवाददाता मौके पर मौजूद रहें। इतना ही नहीं जनभावनाओं को और विस्तार देने तथा जोश भरने के लिए इस अखबार ने वीर रस का साहित्य भी छापा , धर्मगुरूओं के फतवों व बागी नेताओं के घोषणापत्र को प्रमुखता से स्थान मिला। ऐसी बहुत सी खबरें छापी गयीं जिससे बागियों का हौंसला और बुलंद हो। मौलवी बाकर के पुत्र मोहम्मद हुसैन आजाद काफी अच्छे शायर थे । क्रांति के दौरान उनकी रचनाएं अखबार के पहले पेज पर छपती थी। 1857 को लेकर उनकी यह नज्म 25 मई 1857 के अंक में , मेरठ में विद्रोही सेना की विजय के समाचार के साथ छपी थी---
सब जौहरे अक्ल उनके रहे ताक पर रक्खे
सब नाखूने तदबीरो खुर्द हो गए बेकार
काम आए न इल्मो हुनरो हिकमतो फितरत
पूरब के तिलंगो ने लिया सबको वहीं मार।
जून 1857 के बाद अखबार की भाषा-शैली में काफी बदलाव आया। वह जहां एक ओर सिपाहियों की खुल कर तारीफ कर रहा था वहीं, कमियों पर भी खुल कर कलम चला रहा था। सिपाहियों को वह सिपाह-ए-दिलेर ,तिलंगा-ए-नर-शेर तथा सिपाह ए हिंदुस्तान का संबोधन दे रहा था। हिंदू सिपाहियों को वह अर्जुन या भीम बनने की नसीहत दे रहा था तो दूसरी ओर मुसलमान सिपाहियों को रूस्तम ,चंगेज और हलाकू की तरह अंग्रेजों को समाप्त करने की बात कर रहा था। सिपाहियों के प्रति उसकी विशेष सहानुभूति तो दिखती ही है,तमाम खबरों को पढ़कर यह भी नजर आता है, उसके पत्रकारों की सिपाहियों के बीच गहरी पैठ थी।
देहली उर्दू अखबार का विचार पक्ष भी काफी मजबूत था। अखबार हिन्दू -मुसलिम एकता का प्रबल पैरोकार था। उसने कई मौको पर अंग्रेजों की सांप्रदायिक तनाव फैलाने की चालों को बेनकाब कर हिंदुओं और मुसलमानो दोनो को खबरदार किया । कई दृष्टियों से यह महान अखबार और उसके संपादक मौलवी बाकर सदियों तक याद किया जाते रहेगें। यही नहीं भारतीय पत्रकारिता के इस पहले महान बलिदानी से युवा पत्रकार हमेशा प्रेरणा पाते रहेंगे। सरकार को चाहिए , इस महान सेनानी की याद में कमसे कम एक स्मारक् बनाया जाये और डाक टिकट जारी किया जाये। इसी के साथ भारत के पत्रकार संगठनो को भी चाहिए, देश के इस पहले शहीद सेनानी की याद में 16 सितंबर को देश भर में शहादत दिवस भी मनाया जाए ।
Wednesday, August 27, 2008
कंचना-एक जुझारू और समर्पित पत्रकार
अरविंद कुमार सिंह
दिल्ली में पिछले २५ साल से सड़के नापते-नापते मीडिया के साथ बहुत सी दुनिया देखने का मौका मिला है। मीडिया से भी इस बीच में जाने कितने लोग असमय में ही काल का ग्रास बने। पर मुझे कंचना के अलावा जिन मौतों ने बहुत झकझोर दिया, उनमें श्री दिलीप कुमार और अनंत डबराल की मौत शामिल है, जिनके बहुत करीब होने के बावजूद उनके आखिरी मौके पर मैं नहीं रहा। इसी नाते कंचना की मौत के बाद मेरे मन मे एक ही सवाल लगातार तैर रहा था कि उनको जीवित कैसे रखा जाये। कंचना की याद में प्रेस क्लब आफ इंडिया में आयोजित शोक सभा में इसी नाते मेरा जोर इसी खास बिन्दु पर था।
कंचना की दिल्ली यात्रा ,यहां के संघर्षों और जाने माने पत्रकार भाई अवधेश कुमार की जीवन संगिनी बनने जैसे पड़ाव का गवाह रहने के नाते मैंने बहुत सी चीजें बड़े नजदीक से देखी है। मीडिया में मुझे ऐसा कोई नही मिला जिसने कभी कंचना की कोई आलोचना की हो। इसके साथ सबसे बडी़ बात यह देखी कि जिसने भी कंचना के बारे में बात की बहुत सम्मान से बात की । यह बात कहते मुझे संकोच नहीं कि हमारे पेशे में खासकर हिन्दी पत्रकारिता में बहुत से लोग आदिम युग में जी रहे हैं और बहुत से लोगों को अपने साथी महिला पत्रकारों पर टीका -टिप्पणी करने की आदत सी हो गयी है। मीडिया से जुड़ी कुछ जगहे ऐसी हैं जहां से गुजरनेवाली महिला पत्रकारों पर फब्तिया आम बात हैं। पर मैने कभी भी किसी के मुंह से कंचना के बारे में कभी कोई अनर्गल प्रलाप या टिप्पणी नहीं सुनी। उनके प्रति हमेशा एक आदर का भाव ही सबने दर्शाया।
पत्रकारिता के प्रति कंचना का सच्चा समर्पण और सामाजिक सरोकारों के प्रति उनकी निष्ठा तथा मुसीबतजदा लोगो के साथ हमेशा खड़े रहने की आदत नें कंचना को सबका सम्मानपात्र बना दिया था। यहां तक कि उन लोगों का भी,निंदा और आलोचना जिनकी दिनचर्या बन गयी है।
मैं इस बात को बहुत करीब से जानता हूं कि कंचना ने इस शहर में कितनी पीड़ा झेली है और कितना संघर्ष किया है। कर्मठ महिला पत्रकारों के हिस्से वैसे भी कुछ ज्यादा ही संघर्ष आता है। कंचना के हमेशा मुस्कराते चेहरे पर भले ही यह पीड़ा कभी न झलकी हो पर उनसे करीब से जुड़े लोगों ने तो उनको देखा ही है।
मेरी कंचना से मुलाकात किस साल हुई यह ठीक से याद नहीं। शायद 1991-1992 की गरमियों की बात होगी,कंचना अचानक दोपहरी में मुझे आईएनएस बिल्डिंग में किसी के साथ अमर उजाला के कार्यालय में मिली थीं। तब कार्यालय मे मैं ही था और अपना परिचय देने के बाद अखबार के कुछ संस्मरण कंचना ने देखे थे। हमने एक साथ चाय पी और बातचीत की । बात लिखने पढऩे पर केंद्रित रही। तब मैने कंचना को कहा था कि अभी तो तुम्हारी बहुत कम उम्र है लिहाजा लिखने के बजाय पहले पढऩे और चीजों को समझने पर ही जोर दो। पर एक - दो और मुलाकातों में मैने देख लिया कि कंचना की समझ के बारे में मैने जो सोचा था वह गलत था। कंचना पहले से ही बहुत सुलझी,दृष्टिवान और पत्रकारिता के प्रति समर्पित तो थी ही एक तय दिशा भी उसके सामने थी।
इसके बाद कंचना से अक्सर कहीं न कहीं भेंट हो ही जाती थी। आईएनएस बिल्डिंग में उनका नियमित आना जाना था। कई बड़े अखबारों में कंचना लिख रही थीं। आईएनएस में मुलाकातें लंबी नहीं तो कमसे कम चलते फिरते ही हो जाती थीं और उसी में कंचना का सारा हाल चाल मिल जाता था। हां यह जरूर है 2001 में आईएनएस बिल्डिंग छूटने और जनसत्ता एक्सप्रेस में आने के बाद कंचना से मिलना नाममात्र का ही रहा,पर उनका लिखा पढऩे को मिल जाता था और हालचाल भी।
कंचना को मैने हमेशा किसी न किसी ठोस मुद्दे पर या किसी खास लक्ष्य में तल्लीन पाया। दिशाहीनता कभी भी कंचना के आसपास मुझे कभी नही दिखी। कनाचना की निष्ठा,सक्रियता और कर्मठता ने उसे ऐसी ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया जहां पहुंचने में लोगों को काफी समय लगता है।
कंचना और अवधेश कुमार जी दोनो के साथ मेरी आत्मीयता शुरू से ही रही। अवधेशजी के साथ जुडऩे के बाद इस जोड़ी को एक नयी दिशा मिली और इनकी प्रतिभाओं में निखार आया । इनकी बेतरतीब जिंदगी को भी एक आयाम मिला। कंचना की जुदाई से अवधेश जैसे सरल,सहज साथी को कितनी पीडा हुई है,यह मैं महसूस रहा हूं,पर इससे भी बड़ी बात यह है कि कंचना की कमी को पत्रकारिता के साथ समाज भी महसूस कर रहा है।
पत्रकारिता के पेशे के प्रति समर्पण और निष्ठा के साथ कंचना ने सामाजिक सरोकारों को बराबर की अहमियत दी। कंचना का परिचय देश के चोटी के नेताओं से लेकर गरीब से गरीब आदमी से था। लेकिन कंचना में कभी दंभ नही रहा ना तिरछी राह से जगह बनाने की जल्दबाजी। कंचना हमेशा हमें याद आती रहेगी और उनकी कमी पत्रकारिता को अखरेगी । यह खुशी की बात है कि कंचना न्यास बना और सालाना समारोह कर अवधेशजी और राम बहादुरराय जी ने कंचना जैसी आदर्श पत्रकार को जीवित रखा है। कंचना के याद में पुरस्कार भी दिया जा रहा है। इससे युवा पत्रकारों को प्रेरणा मिल रही है ।
दिल्ली में पिछले २५ साल से सड़के नापते-नापते मीडिया के साथ बहुत सी दुनिया देखने का मौका मिला है। मीडिया से भी इस बीच में जाने कितने लोग असमय में ही काल का ग्रास बने। पर मुझे कंचना के अलावा जिन मौतों ने बहुत झकझोर दिया, उनमें श्री दिलीप कुमार और अनंत डबराल की मौत शामिल है, जिनके बहुत करीब होने के बावजूद उनके आखिरी मौके पर मैं नहीं रहा। इसी नाते कंचना की मौत के बाद मेरे मन मे एक ही सवाल लगातार तैर रहा था कि उनको जीवित कैसे रखा जाये। कंचना की याद में प्रेस क्लब आफ इंडिया में आयोजित शोक सभा में इसी नाते मेरा जोर इसी खास बिन्दु पर था।
कंचना की दिल्ली यात्रा ,यहां के संघर्षों और जाने माने पत्रकार भाई अवधेश कुमार की जीवन संगिनी बनने जैसे पड़ाव का गवाह रहने के नाते मैंने बहुत सी चीजें बड़े नजदीक से देखी है। मीडिया में मुझे ऐसा कोई नही मिला जिसने कभी कंचना की कोई आलोचना की हो। इसके साथ सबसे बडी़ बात यह देखी कि जिसने भी कंचना के बारे में बात की बहुत सम्मान से बात की । यह बात कहते मुझे संकोच नहीं कि हमारे पेशे में खासकर हिन्दी पत्रकारिता में बहुत से लोग आदिम युग में जी रहे हैं और बहुत से लोगों को अपने साथी महिला पत्रकारों पर टीका -टिप्पणी करने की आदत सी हो गयी है। मीडिया से जुड़ी कुछ जगहे ऐसी हैं जहां से गुजरनेवाली महिला पत्रकारों पर फब्तिया आम बात हैं। पर मैने कभी भी किसी के मुंह से कंचना के बारे में कभी कोई अनर्गल प्रलाप या टिप्पणी नहीं सुनी। उनके प्रति हमेशा एक आदर का भाव ही सबने दर्शाया।
पत्रकारिता के प्रति कंचना का सच्चा समर्पण और सामाजिक सरोकारों के प्रति उनकी निष्ठा तथा मुसीबतजदा लोगो के साथ हमेशा खड़े रहने की आदत नें कंचना को सबका सम्मानपात्र बना दिया था। यहां तक कि उन लोगों का भी,निंदा और आलोचना जिनकी दिनचर्या बन गयी है।
मैं इस बात को बहुत करीब से जानता हूं कि कंचना ने इस शहर में कितनी पीड़ा झेली है और कितना संघर्ष किया है। कर्मठ महिला पत्रकारों के हिस्से वैसे भी कुछ ज्यादा ही संघर्ष आता है। कंचना के हमेशा मुस्कराते चेहरे पर भले ही यह पीड़ा कभी न झलकी हो पर उनसे करीब से जुड़े लोगों ने तो उनको देखा ही है।
मेरी कंचना से मुलाकात किस साल हुई यह ठीक से याद नहीं। शायद 1991-1992 की गरमियों की बात होगी,कंचना अचानक दोपहरी में मुझे आईएनएस बिल्डिंग में किसी के साथ अमर उजाला के कार्यालय में मिली थीं। तब कार्यालय मे मैं ही था और अपना परिचय देने के बाद अखबार के कुछ संस्मरण कंचना ने देखे थे। हमने एक साथ चाय पी और बातचीत की । बात लिखने पढऩे पर केंद्रित रही। तब मैने कंचना को कहा था कि अभी तो तुम्हारी बहुत कम उम्र है लिहाजा लिखने के बजाय पहले पढऩे और चीजों को समझने पर ही जोर दो। पर एक - दो और मुलाकातों में मैने देख लिया कि कंचना की समझ के बारे में मैने जो सोचा था वह गलत था। कंचना पहले से ही बहुत सुलझी,दृष्टिवान और पत्रकारिता के प्रति समर्पित तो थी ही एक तय दिशा भी उसके सामने थी।
इसके बाद कंचना से अक्सर कहीं न कहीं भेंट हो ही जाती थी। आईएनएस बिल्डिंग में उनका नियमित आना जाना था। कई बड़े अखबारों में कंचना लिख रही थीं। आईएनएस में मुलाकातें लंबी नहीं तो कमसे कम चलते फिरते ही हो जाती थीं और उसी में कंचना का सारा हाल चाल मिल जाता था। हां यह जरूर है 2001 में आईएनएस बिल्डिंग छूटने और जनसत्ता एक्सप्रेस में आने के बाद कंचना से मिलना नाममात्र का ही रहा,पर उनका लिखा पढऩे को मिल जाता था और हालचाल भी।
कंचना को मैने हमेशा किसी न किसी ठोस मुद्दे पर या किसी खास लक्ष्य में तल्लीन पाया। दिशाहीनता कभी भी कंचना के आसपास मुझे कभी नही दिखी। कनाचना की निष्ठा,सक्रियता और कर्मठता ने उसे ऐसी ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया जहां पहुंचने में लोगों को काफी समय लगता है।
कंचना और अवधेश कुमार जी दोनो के साथ मेरी आत्मीयता शुरू से ही रही। अवधेशजी के साथ जुडऩे के बाद इस जोड़ी को एक नयी दिशा मिली और इनकी प्रतिभाओं में निखार आया । इनकी बेतरतीब जिंदगी को भी एक आयाम मिला। कंचना की जुदाई से अवधेश जैसे सरल,सहज साथी को कितनी पीडा हुई है,यह मैं महसूस रहा हूं,पर इससे भी बड़ी बात यह है कि कंचना की कमी को पत्रकारिता के साथ समाज भी महसूस कर रहा है।
पत्रकारिता के पेशे के प्रति समर्पण और निष्ठा के साथ कंचना ने सामाजिक सरोकारों को बराबर की अहमियत दी। कंचना का परिचय देश के चोटी के नेताओं से लेकर गरीब से गरीब आदमी से था। लेकिन कंचना में कभी दंभ नही रहा ना तिरछी राह से जगह बनाने की जल्दबाजी। कंचना हमेशा हमें याद आती रहेगी और उनकी कमी पत्रकारिता को अखरेगी । यह खुशी की बात है कि कंचना न्यास बना और सालाना समारोह कर अवधेशजी और राम बहादुरराय जी ने कंचना जैसी आदर्श पत्रकार को जीवित रखा है। कंचना के याद में पुरस्कार भी दिया जा रहा है। इससे युवा पत्रकारों को प्रेरणा मिल रही है ।
Tuesday, August 19, 2008
हिन्दी के लिए भी समय निकालिए प्रधानमंत्री
हिन्दी के लिए भी समय निकालिए मनमोहनजी
अरविंद कुमार सिंह
डा.मनमोहन सिंह ने केंद्रीय हिंदी समिति की 28वीं बैठक को संबोधित करते हुए अपने प्रधानमंत्री बनने के कुछ माह के बाद ही ,2 सितंबर 2004 को दावा किया था कि हिंदी जल्दी ही संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बन जाएगी। कई बार यह बात उन्होंने दोहराई। इसके बाद विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग ले रहे दुनिया भर के लोगों को अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने अमेरिका की तारीफों के पुल बांधे और प्रतिनिधियों को अमेरिका में होने और महासभा कक्ष में बैठने को अहोभाग्य के रूप में निरूपित किया । भारत से भारी भरकम हिंदी सेवियों और स्वयंभू कई विद्वानो का शिष्टमंडल लेकर अमेरिका पहुंचे विदेश राज्य मंत्री आनंद शर्मा और डा। कर्ण सिंह ने भी घूम फिर कर जो कुछ कहा उसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि सरका र के दावे महज कागजी ही है। हिंदी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने और संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने में राजनीतिक इच्छाशक्ति का सर्वथा अभाव है। संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाएं अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, रूसी, चीनी व अरबी हैं। अंग्रेजो को छोड़ दें तो बाकी भाषाऐं इस सूची में वहां की सरकारों की इच्छाशीलता और इस लक्ष्य के लिए चलाए गए व्यापक कूटनीतिक प्रयासों के चलते शामिल हो सकी हैं।
अगर बारीकी से गौर करें तो पता चलता है,यूपीए सरकार ने हिंदी को यूएन की भाषा बनाने की दिशा में कोई भी प्रयास नहीं िकया। किसी भी भाषा को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाए जाने की प्रक्रिया में नियमावली के नियम 51 में संशोधन करने के लिए महासभा की कुल सदस्यता में से आधे का अनुमोदन होना चाहिए। हर सदस्य देश का एक मत होता है। ऐसे में इस प्रस्ताव के लिए 191 सदस्यों में से 96 देशों का समर्थन भारत को चाहिए। लेिकन प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या विदेश राज्यमंत्री के इस बीच में जितने भी विदेशी दौर रहे उसके भारी भरकम एजेंडे में कहीं हिंदी नहीं नजर आयी। इस तरह अब बचे चाँद महीने में यूपीए सरकार ऐसी कोई बड़ी कूटनीतिक मुहिम चला लेगी इसकी संभावना नहीं दिखती। इस तरह बात केवल संकल्प तक ही समाप्त हो जाएगी।
यह उल्लेख जरूरी है कि दक्षिण के तमिलनाडु राज्य में हिंदी विरोध को अपने सर्वोच्च एजेंडे में रख कर काफी बड़ा आंदोलन चलानेवाली पार्टी डीएम·के. के दबाव में यूपीए सरकार ने अक्तूबर 2004 में ही तमिल को समृद्द भाषा (क्लासिकल लैंग्वेज) का दर्जा दे दिया । इस फैसले के बाद तीन अन्य दक्षिणी राज्यों में कन्नड़, तेलगू तथा मलयालम को ऐसी ही हैसियत देने को घमासान मचा हुआ है । तमिलनाडु सरकार को भारत सरकार ने तमिल को समृद्द भाषा के रूप में प्रचारित प्रसारित करने के लिए 100 करोड़ रूपए भी दिए हैं।
1975 में नागपुर में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा में स्थान दिलाने का संकल्प लिया गया था। इसके बाद से सभी सम्मेलनो में यह बात उठी और 2003 में भी इस बाबत ठोस आकार देने की आशा बलवती हुई। एनडीए सरकार में इस दिशा में काफी जमीनी काम शुरू हुए लेकिन यूपीए सरकार इस दिशा में एकदम उदासीन रही तथा इसने अभी औपचारिक प्रस्ताव तक पेश नहीं किया है। भारत में विदेश राज्यमंत्री की अध्यक्षता में गठित एक विशेष समिति ने हिंदी के बारे में तीन बैठक की है।
केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा का कहना है आधिकारिक भाषा बन जाने से संयुक्त राष्ट्र के खर्च में काफी वृद्दि हो जाती है। ऐसे में सदस्य देश को अंशदान बढ़ाना पड़ता है। इस नाते ज्यादातर सदस्य ऐसे किसी प्रस्ताव के प्रति उदासीन रहते हैं । भारत सरकार ने इसके लिए जो खर्च आँका है वह तमिल भाषा के विकास के लिए दी गयी 100 करोड़ रूपए से अधिक नहीं है। 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लक्ष्य हासिल करने के लिए 26 फरवरी 2003 को विदेश मंत्री की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति गठित की थी। बाद में अगस्त 2003 में विदेश राज्यमंत्री की अध्यक्षता में एक उपसमिति तथा सितंबर 2003 में अवर सचिव प्रशासन की अध्यक्षता में एक कोर ग्रुप का गठन हुआ । इसी दौरान हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाए जाने के लिए भारत का पक्ष रखने के लिए एक पक्ष समर्थन दस्तावेज तैयार करने का फैसला भी लिया गया। दस्तावेज तैयार करने का कम एक वरिष्ठ पत्रकार को दिया गया था पर नवंबर 2004 में उनके स्थान पर यह काम दूसरे पत्रकार को दे दिया गया। मई 2005 में समर्थन दस्तावेज विदेश मंत्रालय द्वारा उपलब्ध करायी गयी सूचना सामग्रियों के आधार पर तैयार कर लिया गया। लेकिन सवाल यह है कि दस्तावेज तैयार करने लायक प्रतिभा भी उस विदेश मंत्रालय में नहीं है तो हिंदी की पैरोकारी की क्षमता कहां होगी ? विदेश मंत्रालय के अधिकारी खुद को हिंदी का विद्वान बताकर दुनिया के तमाम देशों का दौरा तो कर लेते हैं पर समर्थन दस्तावेज तैयार करना उनके बस की बात नहीं।
यह उल्लेखनीय है अटल बिहारी वाजपेयी ने 1977 में विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को गुंजित किया था। वे जब- जब संयुक्त राष्ट्र बोलने पहुंचे उन्होने हिंदी में ही संवाद कायम किया । अनेक मौके पर संयुक्त राष्ट्र में कई भारतीय नेताओं ने हिंदी में भाषण दिए और भारत के स्थायी मिशन ने इन भाषणों का भाषांतरण अंग्रेजी में करने का जरूरी प्रबंध किया था। डॉ.मनमोहन सिंह भी अगर ऐसा करना चाहते तो उनको कौन रोक सकता था। पर उन्होने ऐसा नहीं किया और उनके ४ साल से अधिक के कार्यकरण से यह साफ है कि उनकी ऐसी कोई इच्छा भी नहीं है।
हालाँकि प्रधानमंत्रीजी इस बात को जानते हैं कि हिन्दी इस योग्य है कि उसे विश्व स्तर पर मान्यता मिले। अगर श्रीमती सोनिया गांधी फर्राटेदार हिंदी बोल रही हैं और अमेरिका जैसे देश अपने लोगों को व्यापार के लिए हिंदी और चीनी भाषाएं सीखने पर जोर दे रहे हैं, तो इसका कुछ अर्थ है। पर हमारा राजनीतिक नेतृत्व ही हिंदी की अहमियत नहीं समझ रहा है। सरकार को लगता है,उसके द्वारा कराए जा रहे हिंदी शिक्षण, छात्रवृत्तियां बांटने, हिंदी की मनमाने तरीके से खरीदी गयी किताबों और पत्रिकाओं और भारतीय मिशनो तथा भारतीय संस्कृति संबंध परिषद जैसी संस्थाओं के प्रयासों से काफी कुछ खुद हो रहा है। विदेशी मिशन 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाने लगे हैं, पर इस अवसर का विशुद्द सरकारीकरण हो होने लगा है। इस बीच में मारीसस में विश्व हिदी सचिवालय का बनना हिंदी के विका स के लिए एक युगांतरकारी घटना जरूर मानी जा सकती है।
भारत में हिन्दी अंग्रेजी के साथ संघ की राजभाषा है। राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधन 1967) की धारा 3 (5) के मुताबिक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग तब तक जारी रहेगा जब तक इसको समाप्त क र देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधानमंडलों द्वारा (जिन्होने हिंदी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है) संकल्प पारित नहीं कर दिए जाते हैं। इन संकल्पो पर विचार के बाद संसद के दोनो सदनो में यह पारित होगा । यह कितना कठिन काम है इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।
भारत में आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश,असम, गोवा, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक , केरल, महाराष्ट्र , मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, उड़ीसा, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडु, त्रिपुरा तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों की राजभाषा हिंदी नहीं है,पर पिछली कई जनगणना रिपोर्ट साबित करती है fक देश में हिन्दी सर्वाधिक बोली और समझी जाती है। इसी नाते हिंदी के अखबार या चैनल सबकी पूछ और हैसियत लगातार बढ़ रही है।पूरी दुनिया में 10 जनवरी 2006 को प्रथम विश्व हिंदी दिवस के रूप में आयोजन के बाद से विश्व हिंदी की औपचारिक संकल्पना हमारे सामने आ चुकी है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से देश के हर कार्यालय में हिंदी दिवस 14 सितंबर को हर साल मनाया जाता है। वर्ष 2000 में राजभाषा के रूप में हिंदी ने 50 साल पूरे किए तो भी तमाम समारोह हुए थे और दावे भी पर क्या हुआ यह सब अपनी आंखो से ही देख रहे हैं । लेकिन 21वीं शताब्दी हिंदी और देवनागरी लिपि की ही होगी,इसे कोई रोक नही सकेगा।
अरविंद कुमार सिंह
डा.मनमोहन सिंह ने केंद्रीय हिंदी समिति की 28वीं बैठक को संबोधित करते हुए अपने प्रधानमंत्री बनने के कुछ माह के बाद ही ,2 सितंबर 2004 को दावा किया था कि हिंदी जल्दी ही संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बन जाएगी। कई बार यह बात उन्होंने दोहराई। इसके बाद विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग ले रहे दुनिया भर के लोगों को अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने अमेरिका की तारीफों के पुल बांधे और प्रतिनिधियों को अमेरिका में होने और महासभा कक्ष में बैठने को अहोभाग्य के रूप में निरूपित किया । भारत से भारी भरकम हिंदी सेवियों और स्वयंभू कई विद्वानो का शिष्टमंडल लेकर अमेरिका पहुंचे विदेश राज्य मंत्री आनंद शर्मा और डा। कर्ण सिंह ने भी घूम फिर कर जो कुछ कहा उसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि सरका र के दावे महज कागजी ही है। हिंदी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने और संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने में राजनीतिक इच्छाशक्ति का सर्वथा अभाव है। संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाएं अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, रूसी, चीनी व अरबी हैं। अंग्रेजो को छोड़ दें तो बाकी भाषाऐं इस सूची में वहां की सरकारों की इच्छाशीलता और इस लक्ष्य के लिए चलाए गए व्यापक कूटनीतिक प्रयासों के चलते शामिल हो सकी हैं।
अगर बारीकी से गौर करें तो पता चलता है,यूपीए सरकार ने हिंदी को यूएन की भाषा बनाने की दिशा में कोई भी प्रयास नहीं िकया। किसी भी भाषा को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाए जाने की प्रक्रिया में नियमावली के नियम 51 में संशोधन करने के लिए महासभा की कुल सदस्यता में से आधे का अनुमोदन होना चाहिए। हर सदस्य देश का एक मत होता है। ऐसे में इस प्रस्ताव के लिए 191 सदस्यों में से 96 देशों का समर्थन भारत को चाहिए। लेिकन प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री या विदेश राज्यमंत्री के इस बीच में जितने भी विदेशी दौर रहे उसके भारी भरकम एजेंडे में कहीं हिंदी नहीं नजर आयी। इस तरह अब बचे चाँद महीने में यूपीए सरकार ऐसी कोई बड़ी कूटनीतिक मुहिम चला लेगी इसकी संभावना नहीं दिखती। इस तरह बात केवल संकल्प तक ही समाप्त हो जाएगी।
यह उल्लेख जरूरी है कि दक्षिण के तमिलनाडु राज्य में हिंदी विरोध को अपने सर्वोच्च एजेंडे में रख कर काफी बड़ा आंदोलन चलानेवाली पार्टी डीएम·के. के दबाव में यूपीए सरकार ने अक्तूबर 2004 में ही तमिल को समृद्द भाषा (क्लासिकल लैंग्वेज) का दर्जा दे दिया । इस फैसले के बाद तीन अन्य दक्षिणी राज्यों में कन्नड़, तेलगू तथा मलयालम को ऐसी ही हैसियत देने को घमासान मचा हुआ है । तमिलनाडु सरकार को भारत सरकार ने तमिल को समृद्द भाषा के रूप में प्रचारित प्रसारित करने के लिए 100 करोड़ रूपए भी दिए हैं।
1975 में नागपुर में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा में स्थान दिलाने का संकल्प लिया गया था। इसके बाद से सभी सम्मेलनो में यह बात उठी और 2003 में भी इस बाबत ठोस आकार देने की आशा बलवती हुई। एनडीए सरकार में इस दिशा में काफी जमीनी काम शुरू हुए लेकिन यूपीए सरकार इस दिशा में एकदम उदासीन रही तथा इसने अभी औपचारिक प्रस्ताव तक पेश नहीं किया है। भारत में विदेश राज्यमंत्री की अध्यक्षता में गठित एक विशेष समिति ने हिंदी के बारे में तीन बैठक की है।
केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा का कहना है आधिकारिक भाषा बन जाने से संयुक्त राष्ट्र के खर्च में काफी वृद्दि हो जाती है। ऐसे में सदस्य देश को अंशदान बढ़ाना पड़ता है। इस नाते ज्यादातर सदस्य ऐसे किसी प्रस्ताव के प्रति उदासीन रहते हैं । भारत सरकार ने इसके लिए जो खर्च आँका है वह तमिल भाषा के विकास के लिए दी गयी 100 करोड़ रूपए से अधिक नहीं है। 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लक्ष्य हासिल करने के लिए 26 फरवरी 2003 को विदेश मंत्री की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति गठित की थी। बाद में अगस्त 2003 में विदेश राज्यमंत्री की अध्यक्षता में एक उपसमिति तथा सितंबर 2003 में अवर सचिव प्रशासन की अध्यक्षता में एक कोर ग्रुप का गठन हुआ । इसी दौरान हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाए जाने के लिए भारत का पक्ष रखने के लिए एक पक्ष समर्थन दस्तावेज तैयार करने का फैसला भी लिया गया। दस्तावेज तैयार करने का कम एक वरिष्ठ पत्रकार को दिया गया था पर नवंबर 2004 में उनके स्थान पर यह काम दूसरे पत्रकार को दे दिया गया। मई 2005 में समर्थन दस्तावेज विदेश मंत्रालय द्वारा उपलब्ध करायी गयी सूचना सामग्रियों के आधार पर तैयार कर लिया गया। लेकिन सवाल यह है कि दस्तावेज तैयार करने लायक प्रतिभा भी उस विदेश मंत्रालय में नहीं है तो हिंदी की पैरोकारी की क्षमता कहां होगी ? विदेश मंत्रालय के अधिकारी खुद को हिंदी का विद्वान बताकर दुनिया के तमाम देशों का दौरा तो कर लेते हैं पर समर्थन दस्तावेज तैयार करना उनके बस की बात नहीं।
यह उल्लेखनीय है अटल बिहारी वाजपेयी ने 1977 में विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को गुंजित किया था। वे जब- जब संयुक्त राष्ट्र बोलने पहुंचे उन्होने हिंदी में ही संवाद कायम किया । अनेक मौके पर संयुक्त राष्ट्र में कई भारतीय नेताओं ने हिंदी में भाषण दिए और भारत के स्थायी मिशन ने इन भाषणों का भाषांतरण अंग्रेजी में करने का जरूरी प्रबंध किया था। डॉ.मनमोहन सिंह भी अगर ऐसा करना चाहते तो उनको कौन रोक सकता था। पर उन्होने ऐसा नहीं किया और उनके ४ साल से अधिक के कार्यकरण से यह साफ है कि उनकी ऐसी कोई इच्छा भी नहीं है।
हालाँकि प्रधानमंत्रीजी इस बात को जानते हैं कि हिन्दी इस योग्य है कि उसे विश्व स्तर पर मान्यता मिले। अगर श्रीमती सोनिया गांधी फर्राटेदार हिंदी बोल रही हैं और अमेरिका जैसे देश अपने लोगों को व्यापार के लिए हिंदी और चीनी भाषाएं सीखने पर जोर दे रहे हैं, तो इसका कुछ अर्थ है। पर हमारा राजनीतिक नेतृत्व ही हिंदी की अहमियत नहीं समझ रहा है। सरकार को लगता है,उसके द्वारा कराए जा रहे हिंदी शिक्षण, छात्रवृत्तियां बांटने, हिंदी की मनमाने तरीके से खरीदी गयी किताबों और पत्रिकाओं और भारतीय मिशनो तथा भारतीय संस्कृति संबंध परिषद जैसी संस्थाओं के प्रयासों से काफी कुछ खुद हो रहा है। विदेशी मिशन 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाने लगे हैं, पर इस अवसर का विशुद्द सरकारीकरण हो होने लगा है। इस बीच में मारीसस में विश्व हिदी सचिवालय का बनना हिंदी के विका स के लिए एक युगांतरकारी घटना जरूर मानी जा सकती है।
भारत में हिन्दी अंग्रेजी के साथ संघ की राजभाषा है। राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधन 1967) की धारा 3 (5) के मुताबिक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग तब तक जारी रहेगा जब तक इसको समाप्त क र देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधानमंडलों द्वारा (जिन्होने हिंदी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है) संकल्प पारित नहीं कर दिए जाते हैं। इन संकल्पो पर विचार के बाद संसद के दोनो सदनो में यह पारित होगा । यह कितना कठिन काम है इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।
भारत में आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश,असम, गोवा, जम्मू कश्मीर, कर्नाटक , केरल, महाराष्ट्र , मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, उड़ीसा, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडु, त्रिपुरा तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों की राजभाषा हिंदी नहीं है,पर पिछली कई जनगणना रिपोर्ट साबित करती है fक देश में हिन्दी सर्वाधिक बोली और समझी जाती है। इसी नाते हिंदी के अखबार या चैनल सबकी पूछ और हैसियत लगातार बढ़ रही है।पूरी दुनिया में 10 जनवरी 2006 को प्रथम विश्व हिंदी दिवस के रूप में आयोजन के बाद से विश्व हिंदी की औपचारिक संकल्पना हमारे सामने आ चुकी है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से देश के हर कार्यालय में हिंदी दिवस 14 सितंबर को हर साल मनाया जाता है। वर्ष 2000 में राजभाषा के रूप में हिंदी ने 50 साल पूरे किए तो भी तमाम समारोह हुए थे और दावे भी पर क्या हुआ यह सब अपनी आंखो से ही देख रहे हैं । लेकिन 21वीं शताब्दी हिंदी और देवनागरी लिपि की ही होगी,इसे कोई रोक नही सकेगा।
लेबल:
मनमोहन सिंह,
विदेश मंत्रालय,
हिन्दी,
हिन्दी दिवस
Sunday, August 10, 2008
हिन्दी अकादमी की हकीकत
Sunday, July 6, 2008
ये है पुरस्कारों की हकीकत !
पंजाबी साहित्यकार श्याम विमल की यह चिट्ठी जनसत्ता में प्रेमपाल शर्मा के एक लेख के प्रतिक्रियास्वरूप जनसत्ता में प्रकाशित हुई थी। इस चिट्ठी से जाहिर है कि हिंदी में पुरस्कारों की माया कितनी निराली है। लेकिन हकीकत तो ये है कि हिंदी के इस सियासी शतरंज से दूसरी भाषाओं के पुरस्कार अलग हैं। पेश है इसी चिट्ठी के संपादित अंश -पंजाबी भाषी होकर भी मराठी में लिखी अपनी कविताओं की पांडुलिपि उन्हाचे तुकड़े पर वर्ष 1980-82 का प्रतिस्पर्द्धा पुरस्कार पूर्वकालिक शिक्षा-संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार से मुझे घर बैठे पुरस्कार मिला था। अपने हिंदी उपन्यास व्यामोह के स्वत:किए संस्कृत भाषांतर पर साहित्य अकादम का राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार 1997 में बिना किसी पहुंच और सिफारिश आदि के बाद मिला। जबकि हिंदी में दस के ज्यादा पुस्तकों पर न दिल्ली में रहते हिंदी अकादमी से न उत्तर प्रदेश में रहते किसी हिंदी संस्थान से एक रूपए का भी पुरस्कार नसीब हुआ।...दिल्ली की हिंदी अकादमी के सम्मान-पुरस्कार के वास्ते एक बहुपुरस्कृत कवि-मित्र ने मेरा नाम प्रस्तावित करने के लिए आत्म परिचय मांगा। भेज दिया, साथ में संस्कृत की एक सूक्ति भी जड़ दी- 'गंगातीरमपि त्यजंति मलिनं ते राजहंसा वयम्'यानी यदि तुम्हें लगे कि पुरस्कार की देयता में कुछ मलिनता या दाग की प्रतीति है तो कृपया नाम मत भेजना। इसी अकादमी में एक अन्य हितैषी मित्र ने किसी प्रोफेसर आलोचक को अपनी सद्य:प्रकाशित पुस्तक भिजवा देने का जोर डाला। भिजवा दी। मित्र ने उन सेवानिवृत्त प्रोफेसर से, जैसा कि मुझे फोन पर बताया गया, कहा होगा कि मेरी प्रेषित संसमरण पुस्तक पर अपने दो शव्द लिख दें तो उन धवलकेशी प्रोफेसर ने मेरे मित्र से कहा था- 'तुम्हीं पोस्टकार्ड पर मुझे लिखकर दे दो, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूंगा। 'उन वामपंथी के इस रवैये पर मुझे अपनी वर्ष 1980 में लिखी कविता की दो पंक्तियां याद हो आईं -'मेरा बायां हाथ सुन्न है / खून का दौरा नहीं हो रहा।'एक प्रायोजित युवा पुस्तक-समीक्षक ने बिना पूर्वग्रह से मुक्त हुए मेरी उक्त पुस्तक में छपे हिंदी में बदनाम पुरस्कार प्रसंग पर मसीक्षांत अपना थोथा निचोड़ यह दे डाला -' सिद्धांत (पात्र) को दुख इस बात का है कि सोलह किताबें लिखने के बाद भी पुरस्कार क्यों नहीं मिलता। अपने हासिल पर पुस्तक के अंत में लेखक ने मन भर आंसू बहाए हैं।'आंसू की नाप-तौल निर्धारण के उन्के प्रतिमान के क्या कहने।
प्रस्तुतकर्ता उमेश चतुर्वेदी
ये है पुरस्कारों की हकीकत !
पंजाबी साहित्यकार श्याम विमल की यह चिट्ठी जनसत्ता में प्रेमपाल शर्मा के एक लेख के प्रतिक्रियास्वरूप जनसत्ता में प्रकाशित हुई थी। इस चिट्ठी से जाहिर है कि हिंदी में पुरस्कारों की माया कितनी निराली है। लेकिन हकीकत तो ये है कि हिंदी के इस सियासी शतरंज से दूसरी भाषाओं के पुरस्कार अलग हैं। पेश है इसी चिट्ठी के संपादित अंश -पंजाबी भाषी होकर भी मराठी में लिखी अपनी कविताओं की पांडुलिपि उन्हाचे तुकड़े पर वर्ष 1980-82 का प्रतिस्पर्द्धा पुरस्कार पूर्वकालिक शिक्षा-संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार से मुझे घर बैठे पुरस्कार मिला था। अपने हिंदी उपन्यास व्यामोह के स्वत:किए संस्कृत भाषांतर पर साहित्य अकादम का राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार 1997 में बिना किसी पहुंच और सिफारिश आदि के बाद मिला। जबकि हिंदी में दस के ज्यादा पुस्तकों पर न दिल्ली में रहते हिंदी अकादमी से न उत्तर प्रदेश में रहते किसी हिंदी संस्थान से एक रूपए का भी पुरस्कार नसीब हुआ।...दिल्ली की हिंदी अकादमी के सम्मान-पुरस्कार के वास्ते एक बहुपुरस्कृत कवि-मित्र ने मेरा नाम प्रस्तावित करने के लिए आत्म परिचय मांगा। भेज दिया, साथ में संस्कृत की एक सूक्ति भी जड़ दी- 'गंगातीरमपि त्यजंति मलिनं ते राजहंसा वयम्'यानी यदि तुम्हें लगे कि पुरस्कार की देयता में कुछ मलिनता या दाग की प्रतीति है तो कृपया नाम मत भेजना। इसी अकादमी में एक अन्य हितैषी मित्र ने किसी प्रोफेसर आलोचक को अपनी सद्य:प्रकाशित पुस्तक भिजवा देने का जोर डाला। भिजवा दी। मित्र ने उन सेवानिवृत्त प्रोफेसर से, जैसा कि मुझे फोन पर बताया गया, कहा होगा कि मेरी प्रेषित संसमरण पुस्तक पर अपने दो शव्द लिख दें तो उन धवलकेशी प्रोफेसर ने मेरे मित्र से कहा था- 'तुम्हीं पोस्टकार्ड पर मुझे लिखकर दे दो, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूंगा। 'उन वामपंथी के इस रवैये पर मुझे अपनी वर्ष 1980 में लिखी कविता की दो पंक्तियां याद हो आईं -'मेरा बायां हाथ सुन्न है / खून का दौरा नहीं हो रहा।'एक प्रायोजित युवा पुस्तक-समीक्षक ने बिना पूर्वग्रह से मुक्त हुए मेरी उक्त पुस्तक में छपे हिंदी में बदनाम पुरस्कार प्रसंग पर मसीक्षांत अपना थोथा निचोड़ यह दे डाला -' सिद्धांत (पात्र) को दुख इस बात का है कि सोलह किताबें लिखने के बाद भी पुरस्कार क्यों नहीं मिलता। अपने हासिल पर पुस्तक के अंत में लेखक ने मन भर आंसू बहाए हैं।'आंसू की नाप-तौल निर्धारण के उन्के प्रतिमान के क्या कहने।
प्रस्तुतकर्ता उमेश चतुर्वेदी
Saturday, August 9, 2008
के.सी. निगमजी ,जो ख़बर नहीं बन सके
अरविंद कुमार सिंह
नयी दिल्ली। हिंदी पत्रकारिता की जानी मानी हस्ती और दिल्ली जैसी जगह पर दैनिक जागरण और अमर उजाला जैसे पत्रों को राष्ट्रीय स्तर पर हैसियत और पहचान दिलानेवाले खांटी जर्नलिस्ट कैलाश चंद्र निगम के निधन से पत्रकारिता जगत में भले ही शोक की लहर दिखाई पड़ी हो पर अख़बारों ने उनको ख़बर नही बनाया। उन अख़बारों ने भी जिनको हैसिअत दिलाने में निगमजी की उम्र का एक बड़ा हिस्सा निकल गया था .अपनी बेबाक टिप्पणी तथा आलेखों के लिए चर्चित श्री निगम ने आखिरी सांस तक पत्रकारिता से सरोकार बनाए रखा और हजारों की संख्या में युवा पत्रकारों के लिए तो वह एक अच्छे और सर्वसुलभ मार्गदर्शक और संरक्षक की भूमिका में रहे। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में तो उनकी इतनी पक·ड़ थी fक तमाम मंत्री और मुख्यमंत्री बहुत से जटिल सवालों में उनसे चर्चा और विमर्श करते थे। कई मुख्यमंत्रियों से तो उनके बहुत करीबी रिश्ते रहे पर उन्होने सबके साथ एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखी और यश भारती से लेकर तमाम मोटी रकमवाले इनामो के लिए सुयोग्य होने के बावजूद भी लाबिंग नहीं की । शायद यही वजह है fक तमाम लोग बड़े पदों पर पहुंच गए होंगे पर निगमजी जैसी हैसियत और सम्मान वे हासिल नहीं सके.
श्री निगम ने दिल्ली में हिंदी के क्षेत्रीय अखबारों को हैसियत और पहचान दिलायी। वे ९ साल तक दैनिक जागरण और 25 सालों तक अमर उजाला के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख रहे। यही दौर इन दोनो अखबारो के वास्तविक विकास और बुनियाद रखने का था। उनको इस दौर में तमाम जगहों से अच्छे पद और सम्मान का आफर मिला पर उन्होने यहीं बने रहना पसंद किया । वे इन दोनो अखबारों की ·ी बुनियाद रखनेवाले चंद लोगों में शामिल रहे हैं,अगर यह कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
80 वर्ष का भरा पूरा जीवन जीनेवाले निगमजी ने संसद की पत्रकारिता करीब 45 साल तक लगातार की । वह विश्वमानव समाचार पत्र के निदेशक भी थे और उन्होने ही इस समाचार पत्र को बहुत गाढ़े समय में संभाला। राजनीति को कवर करनेवाले जानते हैं fक श्री निगम की यूपी के मुख्यमंत्री चंद्रभान गुप्ता, चौ.चरण सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा, पंडित कमलापति त्रिपाठी, नारायण दत्त तिवारी तथा वीर बहादुर सिंह से काफी अच्छे और गहरे संबंध थे। ये सभी उनकी बेबाक लेखनी को सम्मान देते थे। वीर बहादुर सिंह और नारायण दत्त तिवारी से तो इनके बहुत आत्मीय संबंध थे। लेकिन इन गहरे संबंधों को लेकर भी भी उन पर किसी ने उंगली उठाने की हिम्मत नहीं की । पत्रकारिता में किसी से संबंध न रखनेवाले लोगों के खिलाफ राजनीतिक दलों से भी ज्यादा लाबिंग होती है,पर श्री निगम का कोई विरोधी नहीं था।
निगम का संपर्क दायरा इतना व्यापक था fक उनको करीब से जाननेवाले ही इस बात को समझ सकते थे। चाहे दिग्गज राजनेता हों या शिक्षाविद,शीर्ष डॉक्टर हों या वैज्ञानिक तमाम चोटी के लोगों से उनके गहरे संबंध थे। इसके बावजूद उनका रहन सहन हमेशा बहुत सामान्य बना रहा और कभी भी उनके चेहरे पर किसी को मिथ्याभिमान नहीं दिखा। न कभी वह यह डींग हांकते पाए गए fके अमुके उनके संपर्क में है। लेकिन यह खूबी निगमजी में थी ,जो भी उनसे जुड़ा,वह हमेशा उनसे जुड़ा रहा। उनके व्यक्तित्व का यह करिश्माई पहलू था।
निगमजी को अगर हिंदी की क्षेत्रीय पत्रकारिता की शिखर हस्ती माना जाये तो यह गलत नहीं होगा। राष्ट्रीय राजनीति और समाज तथा अर्थव्यवस्था ही नहीं निगमजी की पकड़ तमाम विषयों पर रही है। पर यूपी के तमाम छोटे-छोटे मामलों पर उनको इतनी जानकारी रहती थी की बड़े से बड़े लोगों को भी यूपी को समझने के लिए निगमजी को जरूर याद करना पड़ता था। आईएनएस बिल्डिंग से बाहर निकलते समय वो सबकी खोज खबर संजय से लेते थे । यही नहीं तमाम महत्व की प्रेस कांफ्रेंस में भी वह यथासंभव पहुंचते थे और आखिरी दिनो तक फील्ड में सक्रिय रहे। विभिन्न अखबारों में उनके आलेख और कालम काफी चर्चित रहते थे। उनके राजनीतिके विश्लेषण तथा चुनावी टिप्पणियां इतनी सटीके होती थीं fके बहुत से लोग उनको भविष्यक्तता ही बोलने लगे थे।
उनका पारिवारिक जीवन भी बहुत बहुत सुखी तथा संपन्न पर सादगी भरा रहा। आडंबर कभी भी उनके व्यवहार और आचरण में नहीं दिखा। उनके पांच पुत्रों में चार तो सक्रिय पत्रकारिता में ही हैं। भरा पूरा परिवार और नाती पोते सब कुछ उन्होने देखा और इससे भी बड़ी बात यह fके वह सबके आदर्श बने रहे। उनके पुत्र सुभाष निगम भी अपनी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। 1991 में अपनी धर्म पत्नी के निधन से निगमजी टूटे जरूर थे पर उन्होने जल्दी ख़ुद को संभाल लिया । २२ फरवरी २००७ को निगमजी की तवियत दोपहर बाद खराब हुई तो उनके पुत्र सुभाष निगम घर पहुंचे और उनको डा.राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया । पर उस समय टेस्ट कराने के दौरान ही श्री निगम की इहलीला समाप्त हो गयी। उनके निधन की खबर बहुत से लोगों को रात में और अगले दिन में हुई। इसके बाद उनको श्रद्दासुमन अर्पित करनेवालो का तांता सा लग गया। खुद यूपी के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान, इस्पात राज्यमंत्री डा.अखिलेश दास, उ.प्र.विकास परिषद के अध्यक्ष अमर सिंह,डा। कृष्णवीर चौधरी समेत तमाम नेताओं ने उनके निधन पर शोक जताया और मीडिया में तो जिसने सुना वह शोक में डूब गया। पर धन्य हैं वे अख़बार जो उनको भूल गए। निगमजी एक महान पत्रकार थे और उनको कभी भुलाया नही जा सकता।
नयी दिल्ली। हिंदी पत्रकारिता की जानी मानी हस्ती और दिल्ली जैसी जगह पर दैनिक जागरण और अमर उजाला जैसे पत्रों को राष्ट्रीय स्तर पर हैसियत और पहचान दिलानेवाले खांटी जर्नलिस्ट कैलाश चंद्र निगम के निधन से पत्रकारिता जगत में भले ही शोक की लहर दिखाई पड़ी हो पर अख़बारों ने उनको ख़बर नही बनाया। उन अख़बारों ने भी जिनको हैसिअत दिलाने में निगमजी की उम्र का एक बड़ा हिस्सा निकल गया था .अपनी बेबाक टिप्पणी तथा आलेखों के लिए चर्चित श्री निगम ने आखिरी सांस तक पत्रकारिता से सरोकार बनाए रखा और हजारों की संख्या में युवा पत्रकारों के लिए तो वह एक अच्छे और सर्वसुलभ मार्गदर्शक और संरक्षक की भूमिका में रहे। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में तो उनकी इतनी पक·ड़ थी fक तमाम मंत्री और मुख्यमंत्री बहुत से जटिल सवालों में उनसे चर्चा और विमर्श करते थे। कई मुख्यमंत्रियों से तो उनके बहुत करीबी रिश्ते रहे पर उन्होने सबके साथ एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखी और यश भारती से लेकर तमाम मोटी रकमवाले इनामो के लिए सुयोग्य होने के बावजूद भी लाबिंग नहीं की । शायद यही वजह है fक तमाम लोग बड़े पदों पर पहुंच गए होंगे पर निगमजी जैसी हैसियत और सम्मान वे हासिल नहीं सके.
श्री निगम ने दिल्ली में हिंदी के क्षेत्रीय अखबारों को हैसियत और पहचान दिलायी। वे ९ साल तक दैनिक जागरण और 25 सालों तक अमर उजाला के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख रहे। यही दौर इन दोनो अखबारो के वास्तविक विकास और बुनियाद रखने का था। उनको इस दौर में तमाम जगहों से अच्छे पद और सम्मान का आफर मिला पर उन्होने यहीं बने रहना पसंद किया । वे इन दोनो अखबारों की ·ी बुनियाद रखनेवाले चंद लोगों में शामिल रहे हैं,अगर यह कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
80 वर्ष का भरा पूरा जीवन जीनेवाले निगमजी ने संसद की पत्रकारिता करीब 45 साल तक लगातार की । वह विश्वमानव समाचार पत्र के निदेशक भी थे और उन्होने ही इस समाचार पत्र को बहुत गाढ़े समय में संभाला। राजनीति को कवर करनेवाले जानते हैं fक श्री निगम की यूपी के मुख्यमंत्री चंद्रभान गुप्ता, चौ.चरण सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा, पंडित कमलापति त्रिपाठी, नारायण दत्त तिवारी तथा वीर बहादुर सिंह से काफी अच्छे और गहरे संबंध थे। ये सभी उनकी बेबाक लेखनी को सम्मान देते थे। वीर बहादुर सिंह और नारायण दत्त तिवारी से तो इनके बहुत आत्मीय संबंध थे। लेकिन इन गहरे संबंधों को लेकर भी भी उन पर किसी ने उंगली उठाने की हिम्मत नहीं की । पत्रकारिता में किसी से संबंध न रखनेवाले लोगों के खिलाफ राजनीतिक दलों से भी ज्यादा लाबिंग होती है,पर श्री निगम का कोई विरोधी नहीं था।
निगम का संपर्क दायरा इतना व्यापक था fक उनको करीब से जाननेवाले ही इस बात को समझ सकते थे। चाहे दिग्गज राजनेता हों या शिक्षाविद,शीर्ष डॉक्टर हों या वैज्ञानिक तमाम चोटी के लोगों से उनके गहरे संबंध थे। इसके बावजूद उनका रहन सहन हमेशा बहुत सामान्य बना रहा और कभी भी उनके चेहरे पर किसी को मिथ्याभिमान नहीं दिखा। न कभी वह यह डींग हांकते पाए गए fके अमुके उनके संपर्क में है। लेकिन यह खूबी निगमजी में थी ,जो भी उनसे जुड़ा,वह हमेशा उनसे जुड़ा रहा। उनके व्यक्तित्व का यह करिश्माई पहलू था।
निगमजी को अगर हिंदी की क्षेत्रीय पत्रकारिता की शिखर हस्ती माना जाये तो यह गलत नहीं होगा। राष्ट्रीय राजनीति और समाज तथा अर्थव्यवस्था ही नहीं निगमजी की पकड़ तमाम विषयों पर रही है। पर यूपी के तमाम छोटे-छोटे मामलों पर उनको इतनी जानकारी रहती थी की बड़े से बड़े लोगों को भी यूपी को समझने के लिए निगमजी को जरूर याद करना पड़ता था। आईएनएस बिल्डिंग से बाहर निकलते समय वो सबकी खोज खबर संजय से लेते थे । यही नहीं तमाम महत्व की प्रेस कांफ्रेंस में भी वह यथासंभव पहुंचते थे और आखिरी दिनो तक फील्ड में सक्रिय रहे। विभिन्न अखबारों में उनके आलेख और कालम काफी चर्चित रहते थे। उनके राजनीतिके विश्लेषण तथा चुनावी टिप्पणियां इतनी सटीके होती थीं fके बहुत से लोग उनको भविष्यक्तता ही बोलने लगे थे।
उनका पारिवारिक जीवन भी बहुत बहुत सुखी तथा संपन्न पर सादगी भरा रहा। आडंबर कभी भी उनके व्यवहार और आचरण में नहीं दिखा। उनके पांच पुत्रों में चार तो सक्रिय पत्रकारिता में ही हैं। भरा पूरा परिवार और नाती पोते सब कुछ उन्होने देखा और इससे भी बड़ी बात यह fके वह सबके आदर्श बने रहे। उनके पुत्र सुभाष निगम भी अपनी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। 1991 में अपनी धर्म पत्नी के निधन से निगमजी टूटे जरूर थे पर उन्होने जल्दी ख़ुद को संभाल लिया । २२ फरवरी २००७ को निगमजी की तवियत दोपहर बाद खराब हुई तो उनके पुत्र सुभाष निगम घर पहुंचे और उनको डा.राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया । पर उस समय टेस्ट कराने के दौरान ही श्री निगम की इहलीला समाप्त हो गयी। उनके निधन की खबर बहुत से लोगों को रात में और अगले दिन में हुई। इसके बाद उनको श्रद्दासुमन अर्पित करनेवालो का तांता सा लग गया। खुद यूपी के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान, इस्पात राज्यमंत्री डा.अखिलेश दास, उ.प्र.विकास परिषद के अध्यक्ष अमर सिंह,डा। कृष्णवीर चौधरी समेत तमाम नेताओं ने उनके निधन पर शोक जताया और मीडिया में तो जिसने सुना वह शोक में डूब गया। पर धन्य हैं वे अख़बार जो उनको भूल गए। निगमजी एक महान पत्रकार थे और उनको कभी भुलाया नही जा सकता।
Friday, August 8, 2008
१८५७ की नयी कहानी
पुस्तक : क्रान्ति यज्ञ (1857-1947 की गाथा)
-समीक्षक : गोवर्धन यादव
राष्ट्रीय अस्मिता के रेखांकन का सार्थक प्रयास है ‘‘क्रान्ति-यज्ञ‘‘
स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शासन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा और जब इस क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए सन् 1857 से सन् 1947 तक दीर्घावधि क्रान्तियज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। इसी ‘क्रान्ति यज्ञ‘ की गौरवगाथा जनमानस में साहित्य और साहित्येतिहास में अंकित है। भारतीय डाक सेवा के अधिकारी एवं युवा साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव व युवा लेखिका आकांक्षा यादव द्वारा सुसम्पादित पुस्तक ‘‘क्रान्ति यज्ञ ः 1857-1947 की गाथा‘‘ में भारतीय स्वाधीनता संग्राम की अमर बलिदानी गौरव गाथाओं एवं इनके विभिन्न पहलुओं को विविध जीवन क्षेत्रों से संकलित करके ऐतिहासिक शोधग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया है। इस प्रस्तुति में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के ज्ञात व अज्ञात अमर शहीदों और सेनानियों को विस्तृत राष्ट्रीय अस्मिता के भावपूर्ण परिवेश में अंकित करने का सार्थक प्रयास किया गया है, जो अपने राष्ट्रीय जीवन के आदर्शमय संदेशों से परिपूर्ण है। अपनी सम्पादकीय में कृष्ण कुमार यादव ने स्वयं कहा है कि- ‘‘भारत का स्वाधीनता संग्राम एक ऐसा आन्दोलन था जो अपने आप में एक महाकाव्य है। लगभग एक शताब्दी तक चले इस आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा से संगठित हुए लोगों को एकजुट किया। यह आन्दोलन किसी एक धारा का पर्याय नहीं था बल्कि इसमें सामाजिक- धार्मिक-सुधारक, राष्ट्रवादी साहित्यकार, पत्रकार, क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, गाँधीवादी इत्यादि सभी किसी न किसी रूप में सक्रिय थे।‘‘ इन्ही विचारों को प्रामाणिकता प्रदान करते हुए इस शोध साहित्य में उन सभी विचारकों, चिन्तकों इतिहासकारों और अमर बलिदानी क्रान्तिकारी शहीदों से जुड़े एवं उनकी लेखनी से निकले ऐतिहासिक दस्तावेजों का संकलन किया गया है।
‘‘क्रान्ति यज्ञ ः 1857-1947 की गाथा‘‘‘ में जिन लेखों को संकलित किया गया है, उन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम भाग 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम की पृष्ठभूमि, क्रान्ति की तीव्रता और क्रान्ति के नायकों पर केन्द्रित है, तो दूसरे भाग में 1857 की क्रान्ति के परवर्ती आन्दोलनों और नायकों का चित्रण है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम पर स्वयं सम्पादक कृष्ण कुमार यादव का लिखा हुआ लेख ‘1857 की क्रान्ति ः पृष्ठभूमि और विस्तार‘ सर्वाधिक उल्लेखनीय है। इस आलेख में तत्कालीन ईस्ट इण्डिया कम्पनी की शोषण नीति और भारतीयों के प्रति उनकी क्रूरता को 1857 की क्रान्ति का प्रमुख कारण माना गया है। इसके अलावा भारतीय परम्पराओं और धार्मिक मान्यताओं को कुचल कर ईसाई धर्म के विस्तार की नीति को भी क्रान्ति उपजने का कारण माना गया है। घटनाओं का तर्कसंगत विश्लेषण करते हुए विद्वान लेखक ने उस क्रान्ति को मात्र ‘सिपाहियों का विद्रोह‘ अथवा ‘सामन्ती विरोध‘ के अंग्रेज इतिहासकारों के झूठे प्रचार का खण्डन भी किया है। कृष्ण कुमार ने बड़े नायाब तरीके से अंकित किया है कि 1857 की क्रान्ति को कुछ इतिहासकारों ने महास्वप्न की शोकान्तिका भले ही कहा हो, पर इस गर्वीले उपक्रम के फलस्वरूप ही भारत का नायाब मोती ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकल गया और जल्द ही कम्पनी भंग हो गई।
पं0 जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक ‘भारत की खोज‘ से उद्धृत ऐतिहासिक आलेख ‘1857ः आजादी की पहली अंगड़ाई‘ इस संग्रह का महत्वपूर्ण आलेख है, जिसमें विश्व इतिहास की झलक के साथ तत्कालीन राष्ट्रीय विचारधाराओं व उनके प्रभावों का सांस्कृतिक और सामाजिक पक्ष उजागर हुआ है। इसमें भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने उन सभी पक्षों का वर्णन किया है, जो जनमानस में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध उपजे आक्रोश का कारण थे। संग्रह में एक और महत्वपूर्ण आलेख डाॅ0 रामविलास शर्मा का ‘1857 की राज्य क्रान्तिःइतिहासकारों का दृष्टिकोण‘ है। 1857 की क्रान्ति का अध्ययन करने के लिए श्री शर्मा ने इतिहासकार श्री मजूमदार, श्री सेन और श्री जोशी के लेखों का विश्लेषण किया है। माक्र्सवादी दृष्टिकोण और पद्धति को स्वीकार करने वाले इतिहासकारों ने ब्रिटिश सत्ता का पक्ष लिया है। डाॅ0 शर्मा ने ऐसे तथ्यों का तर्कसंगत खण्डन किया है।
‘स्त्रियों की दुनियां घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करता आकांक्षा यादव का लेख ‘वीरांगनाओं ने भी जगाई स्वाधीनता की अलख‘ स्वातंत्र्य समर में महिलाओं की प्रभावी भूमिका को करीने से प्रस्तुत करता है। इनमें से कई वीरांगनाओं का जिक्र तो इतिहास के पन्नों में मिलता है, पर कई वीरांगनाओं की महिमा अतीत के पन्नों में ही दबकर रह गयी। इसी क्रम में आशारानी व्होरा द्वारा प्रस्तुत ‘प्रथम क्रान्तिकारी शहीद किशोरीःप्रीतिलता वादेदार‘ एवं स्वतंत्रता सेनानी युवतियों में सर्वाधिक लम्बी जेल सजा भुगतने वाली नागालैण्ड की रानी गिडालू के सम्बन्ध में लेख भी महत्वपूर्ण हैं। आजाद हिन्द फौज में लेफ्टिनेन्ट रहीं मानवती आय्र्या का मानना है कि भारत अपनी सज्जनता के व्यवहार के कारण साम्राज्यवादी अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों व हिंसावादी गतिविधियों का शिकार बना था। अपने लेख ‘‘भारतीय स्वतंत्रता की दो सशस्त्र क्रान्तियाँ‘‘ में वे 1857 की क्रान्ति व आजाद हिन्द फौज की लड़ाई को भारत की आजादी के प्रमुख आधार स्तम्भ के रूप में चिन्हित करती हैं।
1857 की क्रान्ति का इतिहास मंगल पाण्डे, बहादुर शाह जफर, तात्या टोपे, नाना साहब, अजीमुल्ला खान, मौलवी अहमदुल्ला शाह, कुँवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई जैसे क्रान्तिधर्मियों के बिना अधूरा है। विद्वान लेखक श्री राम शिव मूर्ति यादव ने 1857 की क्रान्ति का प्रथम शहीद मंगल पाण्डे को मानते हुए जो तथ्य प्रस्तुत किये हैं वह अंग्रेजों की बर्बरता-तानाशाही और निरंकुशता का पर्दाफाश करने वाले-प्रामाणिक-कानूनी-पहलू को उजागर करते हैं। जबलपुर के सेना आयुध कोर के संग्रहालय में रखे मंगल पाण्डे के फांसीनामा का हिन्दी अनुवाद इस लेख की विशिष्टता है। विजय नारायण तिवारी द्वारा अतीत के पन्नों से उद्धृत ‘‘बहादुरशाह जफर का ऐतिहासिक घोषणा पत्र‘‘ सांस्कृतिक और सामाजिक समरसता को आधार देता, सभी भारतीयों को संगठित होकर आतातायी के विरूद्ध आन्दोलित होने का निमंत्रण पत्र है। गुरिल्ला युद्ध में माहिर तात्या टोपे के सम्बन्ध में दिनेश बिहारी त्रिवेदी का लेख कई पहलुओं की पड़ताल करता है। अंग्रेजों ने ऐसे क्रान्तिधर्मी के लिए गलत नहीं लिखा था कि- ‘‘यदि उस समय भारत में आधा दर्जन भी तात्या टोपे सरीखे सेनापति होते तो ब्रिटिश सेनाओं की हार तय थी।‘‘ एक हाथ में कलम, दूजे में तलवार लेकर अवध क्षेत्र में क्रान्ति की अलख जगाने वाले विलक्षण वैरागी मौलवी अहमदुल्ला शाह ने क्रान्ति का अनूठा अध्याय रचा। कुमार नरेन्द्र सिंह द्वारा उन पर प्रस्तुत आलेख वर्तमान परिवेश में हर घटना को साम्प्रदायिक नजर से देखने वालों के लिए एक सबक है।
1857 की क्रान्ति का विश्लेषण संचार-तंत्र की भूमिका के बिना नहीं किया जा सकता। 1857 में हरकारों ने क्रान्तिकारियों को जबकि तार ने अंग्रेजों को जो मदद दी, उसने मोटे तौर पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जय-पराजय का लेखा-जोखा लिख दिया। अरविन्द सिंह ने ‘‘1857 और संचार तंत्र‘‘ में इन भावनाओं को बखूबी व्यक्त किया है। जैसे-जैसे लोगों में स्वाधीनता की अकुलाहट बढ़ती गयी, वैसे-वैसे अंग्रेजों ने स्वाधीनता की आकांक्षा का दमन करने के लिए तमाम रास्ते अख्तियार किये, जिनमें सबसे भयानक कालापानी की सजा थी। कृष्ण कुमार यादव का लेख ‘‘क्रान्तिकारियों के बलिदान की साक्षीः सेल्युलर जेल‘‘ मानवता के विरूद्ध अंग्रेजों के कुकृत्यों का अमानवीय पक्ष स्पष्ट करता है। इसमें कालापानी की सजा का आतंकित करने वाला सत्य और उससे संघर्ष करते क्रान्तिकारियों की वीरता-धीरता और राष्ट्रहित के लिए स्वतंत्रता की बलिबेदी पर कुर्बान हो जाने की अदम्य लालसा का आत्मोत्सर्गपरक वर्णन प्रेरक शब्दावली में व्यक्त किया गया है। वीर सावरकर की आत्मकथा से उद्धृत कालापानी की यातना का वर्णन तो रोंगटे खड़ा कर देता है।
1857 की क्रान्ति के जय-पराजय की अपनी मान्यतायें हैं। पर इसमें कोई शक नहीं कि 1947 की आजादी की पृष्ठभूमि 1857 में ही तैयार हो गई थी। यहाँ तक की फ्रांसीसी प्रेस ने भी 1857 को गम्भीरता से लिया था। स्वतंत्रता किसी एक व्यक्ति, जाति, धर्म या प्रान्त की मोहताज नहीं है बल्कि यह सबके सम्मिलित प्रयासों से ही प्राप्त हुई। ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक में डा0 एस0एल0 नागौरी ने स्वतंत्रता में जैनों के योगदान, डा0 एम0 शेषन ने तमिलनाडु के योगदान, के0 नाथ ने दलितों-पिछड़ों के योगदान को चिन्हित किया है। कहते है कि इतिहास उन्हीं का होता है, जो सत्ता में होते हैं पर सत्तासीन लोग यह भूल जाते हैं कि इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। यह सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किंवदंतियों इत्यादि के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। ऐतिहासिक घटनाओं के सार्थक विश्लेषण हेतु लोकेतिहास को भी समेटना जरूरी है। डा0 सुमन राजे ने अपने लेख ‘‘लोकेतिहास और 1857 की जन-क्रान्ति‘‘ में इसे दर्शाने का गम्भीर प्रयास किया है। भारतीय स्वाधीनता का संग्राम सिर्फ व्यक्तियों द्वारा नहीं लड़ा गया बल्कि कवियों और लोक गायकों ने भी लोगों को प्रेरित करने में प्रमुख भूमिका निभायी। इसी कड़ी में युवा लेखिका आकांक्षा यादव के लेख ‘‘लोक काव्य में स्वाधीनता‘‘ में 1857-1947 की स्वातंत्र्य गाथा का अनहद नाद सुनाई पड़ता है।
साहित्य का उद्देश्य है सामाजिक रूपान्तरण। यह अनायास ही नहीं है कि तमाम क्रान्तिकारी व नेतृत्वकर्ता अच्छे साहित्यकार व पत्रकार भी रहे है। वस्तुतः क्रान्ति में कूदने वाले युवक भावावेश मात्र से संचालित नहीं थे, बल्कि सुशिक्षित व विचार सम्पन्न थे। विचार-साहित्य-क्रान्ति का यह बेजोड़ संतुलन रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाकउल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल, भगत सिंह, बाल गंगाधर तिलक इत्यादि जैसे तमाम क्रान्तिकारियों में महसूस किया जा सकता है। डा0 सूर्य प्रसाद दीक्षित ने ‘‘क्रान्तिकारी आन्दोलन और साहित्य रचना‘‘ में क्रान्ति की मशाल को जलाये रखने में लेखनी के योगदान पर खूबसूरत रूप में प्रकाश डाला है। कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा प्रकाशित ‘‘प्रताप‘‘ अखबार की भूमिका स्वतंत्रता के आन्दोलन को गति देने में रही है। इस राष्ट्रीय अस्मिता के संरक्षक पत्र को तथा उसके यशस्वी देशभक्त संपादक को महत्व देकर सम्मान प्रदान करना अपनी साहित्यिक विरासत को सम्मान देना है। डा0 रमेश वर्मा द्वारा प्रस्तुत लेख ‘स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में प्रताप की भूमिका‘ को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। यह साहित्यिक क्रान्ति का ही कमाल था कि अंग्रेजों ने अनेक पुस्तकों और गीतों को प्रतिबन्धित कर दिया था। मदनलाल वर्मा ‘कांत‘ ने इन दुर्लभ साहित्यिक रचनाओं को अनेक विस्मृत आख्यानों और पन्नों से ढँूढ़ निकाला है और ‘‘प्रतिबन्धित क्रान्तिकारी साहित्य‘‘ में ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त की गयी पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं पर सूचनात्मक ढंग में महत्वपूर्ण लेख लिखा है।
1857 की क्रान्ति के 150 वर्ष पूरे होने के साथ-साथ 2007 का महत्व इसलिए भी और बढ़ जाता है कि यह सरदार भगत सिंह, सुखदेव और दुर्गा देवी वोहरा का जन्म शताब्दी वर्ष है। योग्य सम्पादक द्वय कृष्ण कुमार और आकांक्षा यादव की यह खूबी ही कही जायेगी कि इस तथ्य को विस्मृत करने की बजाय उनके योगदान को भी क्रान्ति यज्ञ में उन्होंने रेखांकित किया। भगत सिंह पर उनके क्रान्तिकारी साथी शिव वर्मा द्वारा लिखा संस्मरणात्मक आलेख इस पुस्तक को महत्वपूर्ण बनाती है तो ‘पहला गिरमिटिया‘ से चर्चित गिरिराज किशोर ने ‘‘जब भगत सिंह ने हिन्दी का नारा बुलन्द किया‘‘ में एक नये संदर्भ में भगत सिंह को प्रस्तुत किया है। कोई भी देश अपनी भाषा और साहित्य के बिना अपनी पहचान नहीं बना सकता और भारतीय संदर्भ में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने की भगत सिंह की स्वर्णिम कल्पना वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पुनः प्रासंगिक है। भगत सिंह भावावेश होने की बजाय तार्किक ढंग से अपनी बात कहना पसन्द करते थे। यतीन्द्र नाथ दास की शहादत के बाद ‘माडर्न रिव्यू‘ के सम्पादक द्वारा ‘इन्कलाब जिन्दाबाद‘ नारे की सम्पादकीय आलोचना के प्रत्युत्तर में भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त द्वारा लिखा गया ऐतिहासिक पत्र ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक में समाहित है। इस पत्र में क्रान्ति शब्द का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिर्वतन की भावना एवं आकांक्षा‘ व्यक्त किया गया था। क्रान्तिकारी सुखदेव पर सत्यकाम पहारिया का लेख और दुर्गा देवी वोहरा पर आकांक्षा यादव का लेख उनके विस्तृत जीवन पर प्रकाश डालते हैं। आकांक्षा यादव ने इस तथ्य को भी उदधृत किया है कि एक ही वर्ष की विभिन्न तिथियों में जन्मतिथि पड़ने के बावजूद भगतसिंह अपना जन्मदिन दुर्गा देवी के जन्मदिन पर उन्हीं के साथ मनाते थे और उनके पति भगवतीचरण वोहरा सहित तमाम क्रान्तिकारी इस अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे।
‘‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा‘‘ की भावना को आत्मसात करते हुए अमित कुमार यादव ने ‘स्वतंत्रता संघर्ष और क्रान्तिकारी आन्दोलन‘ के माध्यम से क्रान्तिकारी गतिविधियों को बखूबी संजोया है तो सत्यकाम पहारिया ने स्वाधीनता में योगदान देने वाले तमाम मनीषियों व क्रान्तिकारियों की भूमिकाओं को सहेजा है। क्रान्तिकारी मन्मथनाथ गुप्त की कलम से अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला देनी वाले ‘काकोरी काण्ड का सच‘ युवा पीढ़ी का ध्यान आकृष्ट करता है। चन्द्रशेखर आजाद क्रान्तिकारी आन्दोलन में प्रमुख स्तम्भ थे। क्रान्तिकारी रामकृष्ण खत्री का उन पर लिखा संस्मरणात्मक आलेख कई छुये-अनछुये पहलुओं की पड़ताल करता है। आजाद के माउजर पिस्तौल की रोचक दास्तां भी ‘क्रान्ति-यज्ञ‘ में शामिल है। राम प्रसाद बिस्मिल की 110वीं जयन्ती पर संकलित लेख ‘कलम और रिवाल्वर पर बिस्मिल की समान जादूगरी‘ प्रेरणास्पद है। स्वाधीनता आन्दोलन में स्वराज्य, स्वदेशी व वहिष्कार की भूमिका पर अलगू राय शास्त्री का लेख उस समय की भावनाओं को खूबसूरती से अभिव्यक्त करता है तो डा0 बद्रीनारायण तिवारी का चेतावनी भरा आलेख स्वाधीनता संग्राम की बलिदानी भावना को सहेजने और उसे बनाये रखने का संदेश देता है।
स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास महात्मा गाँधी के बिना अधूरा है। संयुक्त राष्ट्र संघ वर्ष 2007 से ‘गाँधी जयन्ती‘ को ‘विश्व अहिंसा दिवस‘ के रूप में मनाये जाने की घोषणा करके शान्ति व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता को एक बार पुनः सिद्ध कर दिया है। ऐसे में कृष्ण कुमार यादव का लेख ‘समग्र विश्वधारा में व्याप्त हैं महात्मा गाँधी‘ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में काफी प्रासंगिक है। कानपुर 1857 की क्रान्ति और उसके पश्चात भी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है। नाना साहब, तात्या टोपे व अजीमुल्ला खां ने यहीं से सारे देश में क्रान्ति की अलख जगाई तो कालान्तर में भगत सिंह व ‘आजाद‘ जैसे तमाम क्रान्तिकारियों हेतु यह धरती प्रेरणा-बिन्दु बनी। ऐसे में ‘जंग-ए-आजादी कानपुर‘ लेख कई महत्वपूर्ण घटनाओं को सामने लाता है। गणेश शंकर विद्यार्थी की सुपौत्री डाॅ0 मधुलेखा विद्यार्थी ने भी स्वाधीनता संग्राम में कानपुर की भूमिका पर विस्तृत प्रकाश डाला है।
‘‘क्रान्ति-यज्ञ‘‘ के विशेषता सिर्फ यह नहीं है कि इसमें स्वाधीनता संग्राम से जुड़े हर पहलू को छूने की कोशिश की गयी है बल्कि इसमें अजीमुल्ला खां द्वारा रचित ‘1857 का महाप्रयाण गीत‘, राष्ट्रगीत ‘वन्देमातरम्‘, पार्षद जी द्वारा रचित ‘झण्डा गीत‘, क्रान्तिकारियों की गीताः1857-द वार आफ इंडिपेन्डेन्स एवं भारत-भ्रमण पर निकली ‘आजादी एक्सप्रेस‘ जैसी रोचक बातों को शामिल कर इसे जीवन्त व समसामयिक बनाया गया है। आवरण पृष्ठ पर मशाल, तोप व ढाल के साथ आजादी की लड़ाई को धार देने वाले महापुरूषों के चित्रों का अंकन इस पुस्तक को और भी खूबसूरत बनता है।
विश्व साहित्य में राष्ट्रीय भावना का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी साहित्य ने भारतवर्ष की जीवन गति को भी क्रान्तिदर्शी भूमिका प्रदान करने में योगदान दिया है। हमें अपने राष्ट्रभक्त क्रान्तिकारियों के प्रति कृतज्ञ होना ही चाहिए। कृष्ण कुमार और आकांक्षा यादव ने अपने अनेक साहित्यिक आलेखों में सामाजिक शुचिता के जीवन्त बिम्ब प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने साहित्यिक सन्दर्भों में सामाजिक प्रगति के अनेक नूतन आयाम स्थापित करने वाले आलेख लिखे हैं तो और बालमन के निकट आदर्श प्रस्तुत करने वाले प्रेरक सृजन को भी अपनी साहित्यिक प्रतिभा से अभिव्यक्ति प्रदान करने में सफलता पाई है। इसी गति को आगे बढ़ाते हुए उनका प्रस्तुत संकलन ‘क्रान्ति यज्ञ‘ अपनी अस्मिता का आदर्श संरक्षक बना है। निःसन्देह यह संकलन लेखकीय कर्तव्य का ही प्रतिपालन है। इससे अतीत और वर्तमान की जो भूली-बिसरी विरासत थी वह समाज के सामने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राष्ट्रीय स्तर पर आदर्शोन्मुख होकर प्रस्तुत हो सकी है। हमारी वर्तमान पीढ़ी और आने वाले समय और समाज के लिए यह पुस्तक स्वाभिमान का, मानवीय गुणों का और राष्ट्रप्रेम का अनुपम पथ प्रशस्त करने वाली, संदर्शिका बनेगी तथा इसके सन्दर्भों से शोध और चिंतनपरक साहित्य को उत्कृष्ट सन्दर्भ प्राप्त हो सकेंगे। ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक वस्तुतः अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का ही दर्शन है।
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समीक्ष्य पुस्तक ः क्रान्ति-यज्ञ (1857-1947 की गाथा)
सम्पादकद्वय ः कृष्ण कुमार यादव, भारतीय डाक सेवा, वरिष्ठ डाक अधीक्षक, कानपुर kkyadav.y@ rediffmail. com
आकांक्षा यादव, प्रवक्ता, राजकीय बालिका इण्टर कालेज, कानपुर kk_akanksha@yahoo.com
प्रकाशक ः मानस संगम, प्रयाग नारायण शिवाला, कानपुर
समीक्षक ः गोवर्धन यादव, 103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा, मध्य प्रदेश
-समीक्षक : गोवर्धन यादव
राष्ट्रीय अस्मिता के रेखांकन का सार्थक प्रयास है ‘‘क्रान्ति-यज्ञ‘‘
स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शासन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा और जब इस क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए सन् 1857 से सन् 1947 तक दीर्घावधि क्रान्तियज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। इसी ‘क्रान्ति यज्ञ‘ की गौरवगाथा जनमानस में साहित्य और साहित्येतिहास में अंकित है। भारतीय डाक सेवा के अधिकारी एवं युवा साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव व युवा लेखिका आकांक्षा यादव द्वारा सुसम्पादित पुस्तक ‘‘क्रान्ति यज्ञ ः 1857-1947 की गाथा‘‘ में भारतीय स्वाधीनता संग्राम की अमर बलिदानी गौरव गाथाओं एवं इनके विभिन्न पहलुओं को विविध जीवन क्षेत्रों से संकलित करके ऐतिहासिक शोधग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया है। इस प्रस्तुति में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के ज्ञात व अज्ञात अमर शहीदों और सेनानियों को विस्तृत राष्ट्रीय अस्मिता के भावपूर्ण परिवेश में अंकित करने का सार्थक प्रयास किया गया है, जो अपने राष्ट्रीय जीवन के आदर्शमय संदेशों से परिपूर्ण है। अपनी सम्पादकीय में कृष्ण कुमार यादव ने स्वयं कहा है कि- ‘‘भारत का स्वाधीनता संग्राम एक ऐसा आन्दोलन था जो अपने आप में एक महाकाव्य है। लगभग एक शताब्दी तक चले इस आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा से संगठित हुए लोगों को एकजुट किया। यह आन्दोलन किसी एक धारा का पर्याय नहीं था बल्कि इसमें सामाजिक- धार्मिक-सुधारक, राष्ट्रवादी साहित्यकार, पत्रकार, क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, गाँधीवादी इत्यादि सभी किसी न किसी रूप में सक्रिय थे।‘‘ इन्ही विचारों को प्रामाणिकता प्रदान करते हुए इस शोध साहित्य में उन सभी विचारकों, चिन्तकों इतिहासकारों और अमर बलिदानी क्रान्तिकारी शहीदों से जुड़े एवं उनकी लेखनी से निकले ऐतिहासिक दस्तावेजों का संकलन किया गया है।
‘‘क्रान्ति यज्ञ ः 1857-1947 की गाथा‘‘‘ में जिन लेखों को संकलित किया गया है, उन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम भाग 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम की पृष्ठभूमि, क्रान्ति की तीव्रता और क्रान्ति के नायकों पर केन्द्रित है, तो दूसरे भाग में 1857 की क्रान्ति के परवर्ती आन्दोलनों और नायकों का चित्रण है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम पर स्वयं सम्पादक कृष्ण कुमार यादव का लिखा हुआ लेख ‘1857 की क्रान्ति ः पृष्ठभूमि और विस्तार‘ सर्वाधिक उल्लेखनीय है। इस आलेख में तत्कालीन ईस्ट इण्डिया कम्पनी की शोषण नीति और भारतीयों के प्रति उनकी क्रूरता को 1857 की क्रान्ति का प्रमुख कारण माना गया है। इसके अलावा भारतीय परम्पराओं और धार्मिक मान्यताओं को कुचल कर ईसाई धर्म के विस्तार की नीति को भी क्रान्ति उपजने का कारण माना गया है। घटनाओं का तर्कसंगत विश्लेषण करते हुए विद्वान लेखक ने उस क्रान्ति को मात्र ‘सिपाहियों का विद्रोह‘ अथवा ‘सामन्ती विरोध‘ के अंग्रेज इतिहासकारों के झूठे प्रचार का खण्डन भी किया है। कृष्ण कुमार ने बड़े नायाब तरीके से अंकित किया है कि 1857 की क्रान्ति को कुछ इतिहासकारों ने महास्वप्न की शोकान्तिका भले ही कहा हो, पर इस गर्वीले उपक्रम के फलस्वरूप ही भारत का नायाब मोती ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकल गया और जल्द ही कम्पनी भंग हो गई।
पं0 जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक ‘भारत की खोज‘ से उद्धृत ऐतिहासिक आलेख ‘1857ः आजादी की पहली अंगड़ाई‘ इस संग्रह का महत्वपूर्ण आलेख है, जिसमें विश्व इतिहास की झलक के साथ तत्कालीन राष्ट्रीय विचारधाराओं व उनके प्रभावों का सांस्कृतिक और सामाजिक पक्ष उजागर हुआ है। इसमें भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने उन सभी पक्षों का वर्णन किया है, जो जनमानस में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध उपजे आक्रोश का कारण थे। संग्रह में एक और महत्वपूर्ण आलेख डाॅ0 रामविलास शर्मा का ‘1857 की राज्य क्रान्तिःइतिहासकारों का दृष्टिकोण‘ है। 1857 की क्रान्ति का अध्ययन करने के लिए श्री शर्मा ने इतिहासकार श्री मजूमदार, श्री सेन और श्री जोशी के लेखों का विश्लेषण किया है। माक्र्सवादी दृष्टिकोण और पद्धति को स्वीकार करने वाले इतिहासकारों ने ब्रिटिश सत्ता का पक्ष लिया है। डाॅ0 शर्मा ने ऐसे तथ्यों का तर्कसंगत खण्डन किया है।
‘स्त्रियों की दुनियां घर के भीतर है, शासन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘शासन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करता आकांक्षा यादव का लेख ‘वीरांगनाओं ने भी जगाई स्वाधीनता की अलख‘ स्वातंत्र्य समर में महिलाओं की प्रभावी भूमिका को करीने से प्रस्तुत करता है। इनमें से कई वीरांगनाओं का जिक्र तो इतिहास के पन्नों में मिलता है, पर कई वीरांगनाओं की महिमा अतीत के पन्नों में ही दबकर रह गयी। इसी क्रम में आशारानी व्होरा द्वारा प्रस्तुत ‘प्रथम क्रान्तिकारी शहीद किशोरीःप्रीतिलता वादेदार‘ एवं स्वतंत्रता सेनानी युवतियों में सर्वाधिक लम्बी जेल सजा भुगतने वाली नागालैण्ड की रानी गिडालू के सम्बन्ध में लेख भी महत्वपूर्ण हैं। आजाद हिन्द फौज में लेफ्टिनेन्ट रहीं मानवती आय्र्या का मानना है कि भारत अपनी सज्जनता के व्यवहार के कारण साम्राज्यवादी अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों व हिंसावादी गतिविधियों का शिकार बना था। अपने लेख ‘‘भारतीय स्वतंत्रता की दो सशस्त्र क्रान्तियाँ‘‘ में वे 1857 की क्रान्ति व आजाद हिन्द फौज की लड़ाई को भारत की आजादी के प्रमुख आधार स्तम्भ के रूप में चिन्हित करती हैं।
1857 की क्रान्ति का इतिहास मंगल पाण्डे, बहादुर शाह जफर, तात्या टोपे, नाना साहब, अजीमुल्ला खान, मौलवी अहमदुल्ला शाह, कुँवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई जैसे क्रान्तिधर्मियों के बिना अधूरा है। विद्वान लेखक श्री राम शिव मूर्ति यादव ने 1857 की क्रान्ति का प्रथम शहीद मंगल पाण्डे को मानते हुए जो तथ्य प्रस्तुत किये हैं वह अंग्रेजों की बर्बरता-तानाशाही और निरंकुशता का पर्दाफाश करने वाले-प्रामाणिक-कानूनी-पहलू को उजागर करते हैं। जबलपुर के सेना आयुध कोर के संग्रहालय में रखे मंगल पाण्डे के फांसीनामा का हिन्दी अनुवाद इस लेख की विशिष्टता है। विजय नारायण तिवारी द्वारा अतीत के पन्नों से उद्धृत ‘‘बहादुरशाह जफर का ऐतिहासिक घोषणा पत्र‘‘ सांस्कृतिक और सामाजिक समरसता को आधार देता, सभी भारतीयों को संगठित होकर आतातायी के विरूद्ध आन्दोलित होने का निमंत्रण पत्र है। गुरिल्ला युद्ध में माहिर तात्या टोपे के सम्बन्ध में दिनेश बिहारी त्रिवेदी का लेख कई पहलुओं की पड़ताल करता है। अंग्रेजों ने ऐसे क्रान्तिधर्मी के लिए गलत नहीं लिखा था कि- ‘‘यदि उस समय भारत में आधा दर्जन भी तात्या टोपे सरीखे सेनापति होते तो ब्रिटिश सेनाओं की हार तय थी।‘‘ एक हाथ में कलम, दूजे में तलवार लेकर अवध क्षेत्र में क्रान्ति की अलख जगाने वाले विलक्षण वैरागी मौलवी अहमदुल्ला शाह ने क्रान्ति का अनूठा अध्याय रचा। कुमार नरेन्द्र सिंह द्वारा उन पर प्रस्तुत आलेख वर्तमान परिवेश में हर घटना को साम्प्रदायिक नजर से देखने वालों के लिए एक सबक है।
1857 की क्रान्ति का विश्लेषण संचार-तंत्र की भूमिका के बिना नहीं किया जा सकता। 1857 में हरकारों ने क्रान्तिकारियों को जबकि तार ने अंग्रेजों को जो मदद दी, उसने मोटे तौर पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जय-पराजय का लेखा-जोखा लिख दिया। अरविन्द सिंह ने ‘‘1857 और संचार तंत्र‘‘ में इन भावनाओं को बखूबी व्यक्त किया है। जैसे-जैसे लोगों में स्वाधीनता की अकुलाहट बढ़ती गयी, वैसे-वैसे अंग्रेजों ने स्वाधीनता की आकांक्षा का दमन करने के लिए तमाम रास्ते अख्तियार किये, जिनमें सबसे भयानक कालापानी की सजा थी। कृष्ण कुमार यादव का लेख ‘‘क्रान्तिकारियों के बलिदान की साक्षीः सेल्युलर जेल‘‘ मानवता के विरूद्ध अंग्रेजों के कुकृत्यों का अमानवीय पक्ष स्पष्ट करता है। इसमें कालापानी की सजा का आतंकित करने वाला सत्य और उससे संघर्ष करते क्रान्तिकारियों की वीरता-धीरता और राष्ट्रहित के लिए स्वतंत्रता की बलिबेदी पर कुर्बान हो जाने की अदम्य लालसा का आत्मोत्सर्गपरक वर्णन प्रेरक शब्दावली में व्यक्त किया गया है। वीर सावरकर की आत्मकथा से उद्धृत कालापानी की यातना का वर्णन तो रोंगटे खड़ा कर देता है।
1857 की क्रान्ति के जय-पराजय की अपनी मान्यतायें हैं। पर इसमें कोई शक नहीं कि 1947 की आजादी की पृष्ठभूमि 1857 में ही तैयार हो गई थी। यहाँ तक की फ्रांसीसी प्रेस ने भी 1857 को गम्भीरता से लिया था। स्वतंत्रता किसी एक व्यक्ति, जाति, धर्म या प्रान्त की मोहताज नहीं है बल्कि यह सबके सम्मिलित प्रयासों से ही प्राप्त हुई। ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक में डा0 एस0एल0 नागौरी ने स्वतंत्रता में जैनों के योगदान, डा0 एम0 शेषन ने तमिलनाडु के योगदान, के0 नाथ ने दलितों-पिछड़ों के योगदान को चिन्हित किया है। कहते है कि इतिहास उन्हीं का होता है, जो सत्ता में होते हैं पर सत्तासीन लोग यह भूल जाते हैं कि इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। यह सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किंवदंतियों इत्यादि के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। ऐतिहासिक घटनाओं के सार्थक विश्लेषण हेतु लोकेतिहास को भी समेटना जरूरी है। डा0 सुमन राजे ने अपने लेख ‘‘लोकेतिहास और 1857 की जन-क्रान्ति‘‘ में इसे दर्शाने का गम्भीर प्रयास किया है। भारतीय स्वाधीनता का संग्राम सिर्फ व्यक्तियों द्वारा नहीं लड़ा गया बल्कि कवियों और लोक गायकों ने भी लोगों को प्रेरित करने में प्रमुख भूमिका निभायी। इसी कड़ी में युवा लेखिका आकांक्षा यादव के लेख ‘‘लोक काव्य में स्वाधीनता‘‘ में 1857-1947 की स्वातंत्र्य गाथा का अनहद नाद सुनाई पड़ता है।
साहित्य का उद्देश्य है सामाजिक रूपान्तरण। यह अनायास ही नहीं है कि तमाम क्रान्तिकारी व नेतृत्वकर्ता अच्छे साहित्यकार व पत्रकार भी रहे है। वस्तुतः क्रान्ति में कूदने वाले युवक भावावेश मात्र से संचालित नहीं थे, बल्कि सुशिक्षित व विचार सम्पन्न थे। विचार-साहित्य-क्रान्ति का यह बेजोड़ संतुलन रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाकउल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल, भगत सिंह, बाल गंगाधर तिलक इत्यादि जैसे तमाम क्रान्तिकारियों में महसूस किया जा सकता है। डा0 सूर्य प्रसाद दीक्षित ने ‘‘क्रान्तिकारी आन्दोलन और साहित्य रचना‘‘ में क्रान्ति की मशाल को जलाये रखने में लेखनी के योगदान पर खूबसूरत रूप में प्रकाश डाला है। कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा प्रकाशित ‘‘प्रताप‘‘ अखबार की भूमिका स्वतंत्रता के आन्दोलन को गति देने में रही है। इस राष्ट्रीय अस्मिता के संरक्षक पत्र को तथा उसके यशस्वी देशभक्त संपादक को महत्व देकर सम्मान प्रदान करना अपनी साहित्यिक विरासत को सम्मान देना है। डा0 रमेश वर्मा द्वारा प्रस्तुत लेख ‘स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में प्रताप की भूमिका‘ को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। यह साहित्यिक क्रान्ति का ही कमाल था कि अंग्रेजों ने अनेक पुस्तकों और गीतों को प्रतिबन्धित कर दिया था। मदनलाल वर्मा ‘कांत‘ ने इन दुर्लभ साहित्यिक रचनाओं को अनेक विस्मृत आख्यानों और पन्नों से ढँूढ़ निकाला है और ‘‘प्रतिबन्धित क्रान्तिकारी साहित्य‘‘ में ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त की गयी पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं पर सूचनात्मक ढंग में महत्वपूर्ण लेख लिखा है।
1857 की क्रान्ति के 150 वर्ष पूरे होने के साथ-साथ 2007 का महत्व इसलिए भी और बढ़ जाता है कि यह सरदार भगत सिंह, सुखदेव और दुर्गा देवी वोहरा का जन्म शताब्दी वर्ष है। योग्य सम्पादक द्वय कृष्ण कुमार और आकांक्षा यादव की यह खूबी ही कही जायेगी कि इस तथ्य को विस्मृत करने की बजाय उनके योगदान को भी क्रान्ति यज्ञ में उन्होंने रेखांकित किया। भगत सिंह पर उनके क्रान्तिकारी साथी शिव वर्मा द्वारा लिखा संस्मरणात्मक आलेख इस पुस्तक को महत्वपूर्ण बनाती है तो ‘पहला गिरमिटिया‘ से चर्चित गिरिराज किशोर ने ‘‘जब भगत सिंह ने हिन्दी का नारा बुलन्द किया‘‘ में एक नये संदर्भ में भगत सिंह को प्रस्तुत किया है। कोई भी देश अपनी भाषा और साहित्य के बिना अपनी पहचान नहीं बना सकता और भारतीय संदर्भ में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने की भगत सिंह की स्वर्णिम कल्पना वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पुनः प्रासंगिक है। भगत सिंह भावावेश होने की बजाय तार्किक ढंग से अपनी बात कहना पसन्द करते थे। यतीन्द्र नाथ दास की शहादत के बाद ‘माडर्न रिव्यू‘ के सम्पादक द्वारा ‘इन्कलाब जिन्दाबाद‘ नारे की सम्पादकीय आलोचना के प्रत्युत्तर में भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त द्वारा लिखा गया ऐतिहासिक पत्र ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक में समाहित है। इस पत्र में क्रान्ति शब्द का अर्थ ‘प्रगति के लिए परिर्वतन की भावना एवं आकांक्षा‘ व्यक्त किया गया था। क्रान्तिकारी सुखदेव पर सत्यकाम पहारिया का लेख और दुर्गा देवी वोहरा पर आकांक्षा यादव का लेख उनके विस्तृत जीवन पर प्रकाश डालते हैं। आकांक्षा यादव ने इस तथ्य को भी उदधृत किया है कि एक ही वर्ष की विभिन्न तिथियों में जन्मतिथि पड़ने के बावजूद भगतसिंह अपना जन्मदिन दुर्गा देवी के जन्मदिन पर उन्हीं के साथ मनाते थे और उनके पति भगवतीचरण वोहरा सहित तमाम क्रान्तिकारी इस अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे।
‘‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा‘‘ की भावना को आत्मसात करते हुए अमित कुमार यादव ने ‘स्वतंत्रता संघर्ष और क्रान्तिकारी आन्दोलन‘ के माध्यम से क्रान्तिकारी गतिविधियों को बखूबी संजोया है तो सत्यकाम पहारिया ने स्वाधीनता में योगदान देने वाले तमाम मनीषियों व क्रान्तिकारियों की भूमिकाओं को सहेजा है। क्रान्तिकारी मन्मथनाथ गुप्त की कलम से अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला देनी वाले ‘काकोरी काण्ड का सच‘ युवा पीढ़ी का ध्यान आकृष्ट करता है। चन्द्रशेखर आजाद क्रान्तिकारी आन्दोलन में प्रमुख स्तम्भ थे। क्रान्तिकारी रामकृष्ण खत्री का उन पर लिखा संस्मरणात्मक आलेख कई छुये-अनछुये पहलुओं की पड़ताल करता है। आजाद के माउजर पिस्तौल की रोचक दास्तां भी ‘क्रान्ति-यज्ञ‘ में शामिल है। राम प्रसाद बिस्मिल की 110वीं जयन्ती पर संकलित लेख ‘कलम और रिवाल्वर पर बिस्मिल की समान जादूगरी‘ प्रेरणास्पद है। स्वाधीनता आन्दोलन में स्वराज्य, स्वदेशी व वहिष्कार की भूमिका पर अलगू राय शास्त्री का लेख उस समय की भावनाओं को खूबसूरती से अभिव्यक्त करता है तो डा0 बद्रीनारायण तिवारी का चेतावनी भरा आलेख स्वाधीनता संग्राम की बलिदानी भावना को सहेजने और उसे बनाये रखने का संदेश देता है।
स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास महात्मा गाँधी के बिना अधूरा है। संयुक्त राष्ट्र संघ वर्ष 2007 से ‘गाँधी जयन्ती‘ को ‘विश्व अहिंसा दिवस‘ के रूप में मनाये जाने की घोषणा करके शान्ति व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता को एक बार पुनः सिद्ध कर दिया है। ऐसे में कृष्ण कुमार यादव का लेख ‘समग्र विश्वधारा में व्याप्त हैं महात्मा गाँधी‘ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में काफी प्रासंगिक है। कानपुर 1857 की क्रान्ति और उसके पश्चात भी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है। नाना साहब, तात्या टोपे व अजीमुल्ला खां ने यहीं से सारे देश में क्रान्ति की अलख जगाई तो कालान्तर में भगत सिंह व ‘आजाद‘ जैसे तमाम क्रान्तिकारियों हेतु यह धरती प्रेरणा-बिन्दु बनी। ऐसे में ‘जंग-ए-आजादी कानपुर‘ लेख कई महत्वपूर्ण घटनाओं को सामने लाता है। गणेश शंकर विद्यार्थी की सुपौत्री डाॅ0 मधुलेखा विद्यार्थी ने भी स्वाधीनता संग्राम में कानपुर की भूमिका पर विस्तृत प्रकाश डाला है।
‘‘क्रान्ति-यज्ञ‘‘ के विशेषता सिर्फ यह नहीं है कि इसमें स्वाधीनता संग्राम से जुड़े हर पहलू को छूने की कोशिश की गयी है बल्कि इसमें अजीमुल्ला खां द्वारा रचित ‘1857 का महाप्रयाण गीत‘, राष्ट्रगीत ‘वन्देमातरम्‘, पार्षद जी द्वारा रचित ‘झण्डा गीत‘, क्रान्तिकारियों की गीताः1857-द वार आफ इंडिपेन्डेन्स एवं भारत-भ्रमण पर निकली ‘आजादी एक्सप्रेस‘ जैसी रोचक बातों को शामिल कर इसे जीवन्त व समसामयिक बनाया गया है। आवरण पृष्ठ पर मशाल, तोप व ढाल के साथ आजादी की लड़ाई को धार देने वाले महापुरूषों के चित्रों का अंकन इस पुस्तक को और भी खूबसूरत बनता है।
विश्व साहित्य में राष्ट्रीय भावना का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी साहित्य ने भारतवर्ष की जीवन गति को भी क्रान्तिदर्शी भूमिका प्रदान करने में योगदान दिया है। हमें अपने राष्ट्रभक्त क्रान्तिकारियों के प्रति कृतज्ञ होना ही चाहिए। कृष्ण कुमार और आकांक्षा यादव ने अपने अनेक साहित्यिक आलेखों में सामाजिक शुचिता के जीवन्त बिम्ब प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने साहित्यिक सन्दर्भों में सामाजिक प्रगति के अनेक नूतन आयाम स्थापित करने वाले आलेख लिखे हैं तो और बालमन के निकट आदर्श प्रस्तुत करने वाले प्रेरक सृजन को भी अपनी साहित्यिक प्रतिभा से अभिव्यक्ति प्रदान करने में सफलता पाई है। इसी गति को आगे बढ़ाते हुए उनका प्रस्तुत संकलन ‘क्रान्ति यज्ञ‘ अपनी अस्मिता का आदर्श संरक्षक बना है। निःसन्देह यह संकलन लेखकीय कर्तव्य का ही प्रतिपालन है। इससे अतीत और वर्तमान की जो भूली-बिसरी विरासत थी वह समाज के सामने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राष्ट्रीय स्तर पर आदर्शोन्मुख होकर प्रस्तुत हो सकी है। हमारी वर्तमान पीढ़ी और आने वाले समय और समाज के लिए यह पुस्तक स्वाभिमान का, मानवीय गुणों का और राष्ट्रप्रेम का अनुपम पथ प्रशस्त करने वाली, संदर्शिका बनेगी तथा इसके सन्दर्भों से शोध और चिंतनपरक साहित्य को उत्कृष्ट सन्दर्भ प्राप्त हो सकेंगे। ‘‘क्रान्ति यज्ञ‘‘ पुस्तक वस्तुतः अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का ही दर्शन है।
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समीक्ष्य पुस्तक ः क्रान्ति-यज्ञ (1857-1947 की गाथा)
सम्पादकद्वय ः कृष्ण कुमार यादव, भारतीय डाक सेवा, वरिष्ठ डाक अधीक्षक, कानपुर kkyadav.y@ rediffmail. com
आकांक्षा यादव, प्रवक्ता, राजकीय बालिका इण्टर कालेज, कानपुर kk_akanksha@yahoo.com
प्रकाशक ः मानस संगम, प्रयाग नारायण शिवाला, कानपुर
समीक्षक ः गोवर्धन यादव, 103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा, मध्य प्रदेश
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